भ्रम (मौन से संवाद) / शशि सहगल
दीवाली के ठीक दूसरे दिन
वह चला गया, इस संसार से
जाना तो सभी को है
जानते हुए भी हम
रहते हैं इस सत्य से दूर-दूर।
परम-सत्ता का भास
शव के निकट बैठे-बैठे होने लगता है
मन धीरे-धीरे
भौतिकता के चंगुल से छूट
ऊपर उठना चाहता है
आस-पास बैठे सभी लोग
अधिकाधिक आत्मीय लगने की कोशिश में
जुटे रहते हैं जी जान से
उनका गणित
अपने नफा-घाटा की जोड़-तोड़ करता है
ऐसे में मेरा मन
दो ध्रुवों को पार करता
एक साथ करता है विचरण
पहला छोर मुझे बांधता है मृत्यु से
और मैं शव में बदल जाती हूँ
मेरा शव
रखा है एक ओर
मेरी चेतना
सुनती है रुदन
लोग दे रहे हैं सांत्वना
मैं ढूंढती हूँ बहते आँसुओं की सच्चाई
मुझे कोई भी रास्ता नहीं दिखता
मेरी संज्ञाएं
माँ, पत्नी, बेटी, मित्र
अब अगरु-धूम सी
नाम शेष हो रही हैं।
बच्चे, मेरा अपना ही अंश
अपने-अपने अंशों में विभक्त
मुझे पंचभूत को समर्पित कर
होना चाहते हैं मुक्त
सांसारिक रस्मों को निपटा
बांटना चाहते हैं वह सब कुछ
जो मैंने अपने लिए
संजोया सहेजा था
बड़े चाव से।
यही हैं अपने?
हैरान है मेरा शव
और मैं उसे
इस पीड़ा से मुक्त कर के
खींच लेती हूँ
चेतना का अंतिम अंश
जो अभी तक शव में विद्यमान था।