भ्रम / सूरदास
आजु सखी अरुनोदय मेरे, नैननि कौं धोख भयौ ।
की हरि आजु पंथ इहिं गवने, स्याम जलद की उनयौ ॥
की बग पाँति भाँति, उर पर की मुकुट-माल बहु मोल ।
कीधौं मोर मुदित नाचत, की बरह-मुकुट की डोल ॥
की घनघोर गंभीर प्रात उटी, की ग्वालनि की टेरनि ।
की दामिनी कौंधति चहुँ दिसि, की सुभग पीत पट फेरनि ॥
की बनमाल लाल-उर राजति, की सुरपति-धनु चारू ।
सूरदास-प्रभु-रस भरि उमँगी, राधा कहति बिचारु ॥1॥
राधिका हृदय तैं धोख टारौ ।
नंद के ला देखे प्रात-काल तैं, मेघ नहिं स्याम तनु-छबि बिचारौ ।
इंद्र-धनु नहीं बन दाम बहु सुमन के, नहीं बग पाँति बर मोति-माला ।
सिखी वह नहीं सिर मुकुट सीखंड पछ, तड़ित नहिं पीत पट-छवि रसाला ॥
मंद गरजन नहीं चरन नूपुर-सबद, भोरही आजु हरि गवन कीन्हौ ॥
सूर प्रभु भामिनी भवन करि गवन, मन रवन दुख के दवन जानि लीन्हौ ॥2॥