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भ्रूणकाया / मधुरिमा सिंह

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मुझे
बहुत अच्छा लगा था
उस दिन
जब पहले पहल
मेरी माँ को
मेरे आने का पता चला

उसके हाथ में थी
भ्रूण परीक्षण की रिपोर्ट
जिसे उसने कारीडोर में
बैठे मेरे पिता को
देते हुए कहा था
"लड़की" है

मेरे पिता
मेरी दो बहनों के साथ
बैठे खेल रहे थे
मुझे घुंघराले बालों वाली
दोनों बहने
बहुत प्यारी लगी थीं
किन्तु चौंक पड़े थे पिता
कुछ कठोर-सा
हो गया था उनका स्वर
"चलो इसे कहीं गिरवा देते हैं"

 
माँ पत्थर की तरह
शून्य में निहारती रही दूर तक
फिर धीरे से बोली "नहीं"
"पागल हो क्या
दो तो पहले से ही हैं
फिर एक और
मुझे सिर्फ बेटा चाहिए" बोले पिता

माँ मना करती ही रही
अंतिम क्षण तक

अस्पताल का वह 'शल्यकक्ष'
वह ईथर की बदबू
मुझे बहुत भयावह
लग रही थी

मैंने कहना चाहा
अपने पिता से
आने दो मुझे
मै भी बैठना चाहती हूँ
माँ की गोद में
झुलना चाहती हूँ
तुम्हारी बाँहों में
खेलना चाहती हूँ
हरे-भरे मैदानों में
बच्चों के साथ

किन्तु अपनी नष्ट भ्रूण-काया को
अस्पताल की
कूड़े की बाल्टी में
फेके जाने के समय तक भी
मै कुछ कह नहीं पाई थी
काँप कर रह गए थे मेरे होंठ
क्योंकि मै औरत थी