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मंगल. / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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139.

सुनहु सखि मंगल हे, बाबा मोर वर एक खोजल हे।
अगम उदधि जल जल पार, सुन्दर सुघर सोहावन हे।
जेहितन नहि परिछाँहि, बिनु जो तिहिँ जगमग करै हे।
विनु घोर वहिँ असवार, सासु ससुर बिनु सासुर हे।
सवति से प्रान पियारि, अस सासुर जिन परिखल हे।
नैहर तेहि न सोहाय, धरनि धनी हिय हरषित हे॥1॥
मन वच कर्म न आन॥

140.

पार बसै पिय पीतम, वार बसेरा मोर।
गुरु-गम तँह चित लुबुधल, जस परधन में मन चोर॥
जइसे चकोर चित चन्दहि, चितवत एक टक लाय।
जब होय नयनके ओझल, से तो पुहुमि परै मुरुझाय॥
जसे चकई निसि कलपइ, भोर निहारि निहारि।
जब लगि दरस परस नहि, उठत पुकारि पुकारि॥
धरनी विरह भुअंगम, डसेउ अचानक आय।
वेगि मिलौ प्रभु गारुडि, मरत न लेहु जियाय॥2॥

141.

मूल शबद सुधि सुनइत, जागलि आतम नारि।
नैहर नेह बिसरि गैल, गुरु-सूरति ससुरारि॥
पुरन प्रेम प्रगट भौ, उर उपजेल अनुराग।
भूषन भवन न भावै, नयनन नींद न लागु॥
संग-सलेहरि सकुचति, संघति सवति सोहाय।
विरहिनि विरह-वियाकुल, निसिवासर अकुलाय॥
विलपति कलपति रोवति, झरवति झुरवति सोय।
ओषध दरस परसु बिनु, व्याधि विनास न होय॥
जब लति युक्ति न जोउ, रहलि अपावन देह।
आप आप नहि परखत, बाढ़त सहज सनेह॥
अधर निरेखि अदेखिय, निरमल जोति प्रकास।
तन, मन, प्रान जिवन धन बलि बलि धरनीदास॥3॥

142.

अब मन मोर बसै एक मंदिल, अनतै कतहुँ न जाय।
बार बार नेवछावर साराँ, प्रेम के सेज चढ़ाय॥
लै सरधा जल चरन खटारोँ, चरनामृत सिर नाय।
अह निधि चरन गहे मन, वच, क्रम करउँ सदा सेवकाय॥
पाँच भैया मिलि मंगल गावै, पुनि पच्चीस नचाय।
बहुअ बहतरी ताल धराओ, सर्वस देल लुटाय॥
धरनी जौ मन को मन मानै, तो तिहुँलोक वधाय।
जीवन जनम सुफल करि लेखहु, गुरु गोविन्द दोहाय॥4॥