मंजर-गीत / रामगोपाल 'रुद्र'
गाऊँ, कुछ गीत सुनाऊँ रे, मंज़र हूँ, मधु बरसाऊँ।
मैं चूम-चूम दिनकर के कर, पी सुधा-स्निग्ध शशि के शीकर,
वंदित वसंत की मौन-मुखर सुषमा के साज सजाऊँ रे!
मलयज-रानी के धर दुकूल, सौरभ से अपने स्वप्न तूल,
रचना पर अपनी भूल-भूल, झूलूँ, फूलूँ, मुस्काऊँ रे!
गर्वित रसाल, हर्षित तमाल, सुरभित वनांत, अंबर विशाल,
तितली रसज्ञकुल मधुपमाल, सबसे मैं रास रचाऊँ रे!
चूमें चिड़ियाँ मेरे मधु-कर, झूमें पल्लव मुझको पाकर,
मेरी अनन्य-श्री भर दे स्वर अंग-जग में, मैं इठलाऊँ रे!
सूने में नभ के बादल-दल, भू पर खेतों में दल श्यामल,
मेरे रागों से हों प्रांजल, मैं मन की बीन बजाऊँ रे!
कूके केकी कोयल पगली, पिहके पपिहा प्रति वनस्थली,
फूली न समाए कली-कली, मैं वह संदेश सुनाऊँ रे!
खिल-खुल खेलें जन प्रेम-फाग, रह जाय न कण-भर द्वेष-राग,
सब लाल-लाल, सब बाग-बाग, भागे विराग, मैं भाऊँ रे!
दो दिन की मेरी प्रेमकथा, हर ले अंग-जग की मर्मव्यथा,
है मरण मर्त्य की प्रथा, मरूँ, पर अमराई भर जाऊँ रे!