भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मंज़र भला था फिर भी नज़र को बुरा लगा / नवाज़ देवबंदी
Kavita Kosh से
मंज़र भला था फिर भी नज़र को बुरा लगा
दीवारो-दर को सारे ही घर को बुरा लगा
खुशहाल होना मेरा, अज़ीज़ों से पूछिये
पत्ता हरा हुआ तो शजर को बुरा लगा