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मंज़िलों का निशान बाक़ी है / राकेश जोशी

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मंज़िलों का निशान बाक़ी है
और इक इम्तहान बाक़ी है

एक पूरा जहान पाया है
एक पूरा जहान बाक़ी है

आसमां, तुम रहो ज़रा बचकर
अब भी उसकी उड़ान बाक़ी है

तन तो सारा निचोड़ आया हूँ
मन की सारी थकान बाक़ी है

खेत बंजर कभी नहीं होगा
एक भी गर किसान बाक़ी है

खंडहर हो गए हैं सारे पर
फिर भी महलों की शान बाक़ी है

इससे आगे तो बस उतरना है
अब तो केवल ढलान बाक़ी है

बाढ़ आने से बह गए हैं सब
एक तन्हा मकान बाक़ी है

ज़िंदगी, तुझसे पूछता हूँं मैं
और कितना लगान बाक़ी है