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मंज़िलों तक मंज़िलों की आरज़ू रह जाएगी / ज़मील मुरस्सापुरी

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मंज़िलों तक मंज़िलों की आरज़ू रह जाएगी
कारवाँ थक जाएँ फिर भी जुस्तजू रह जाएगी

ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे भी चाहिए पास-ए-अदब
वो जो रूठे तो अधूरी गुफ़्तुगू रह जाएगी

ग़ैर के आने न आने से भला क्या फ़ाएदा
तुम तो आ जाओ तो मेरी आबरू रह जाएगी

इस भरी महफ़िल में तेरी एक मैं ही तिश्ना-लब
साक़िया क्या ख़्वाहिश-ए-जाम-ओ-सुबू रह जाएगी

हम अगर महरूम होंगे अहल-ए-फ़न की दाद से
शेर कहने की किसे फिर आरज़ू रह जाएगी