मंज़िलों पर मंज़िलें, ऊँचे मकाँ हैं, देखिये / उर्मिल सत्यभूषण
मंज़िलों पर मंज़िलें, ऊँचे मकाँ हैं, देखिये
सब परेशां ढूंढ़ते हैं घर कहाँ हैं, देखिये
कुलबुलाती बस्तियों में बिलबिलाते जीव ये
नालियों की गंदगी में भी रवां हैं, देखिये
भीड़ के बढ़ते हुये फुफकराते नागों के बीच
किस कदर भयभीत ये तन्हाइयां हैं, देखिये
झूठ, धोखा, काँइयापन, साज़िशें, मीठे फ़रेब
शहर में इख़लाक़ के कितने निशां हैं, देखिये
पत्थरों के ख़ौफ़ से यूं दर्द गूंगा हो गया
फिर भी आँखों में चमकती बिजलियां हैं, देखिये
लोग अब टुकड़ों में जीने के लिये अभिशप्त हैं
आज उनके सर यहाँ तो धड़ वहाँ हैं, देखिये
हैं विषैली जल-हवायें और दूषित है गिज़ा
सर के ऊपर मौत की परछाईयां हैं, देखिये
काग़ज़ों के कुछ पुलिंदे हाथ में उस शख्स के
और उन पर खू़न से लिखे बयां हैं, देखिये
हाय, यह तहज़ीब उर्मिल को पटख कर बढ़ गई
आज उसके साथ उसकी तल्खियां हैं देखिये।