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मंज़िल पर पहुँचना चाहता है मन / सुधेश

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मंज़िल पर पहुँचना चाहता है मन
 क्या पता कब बैठ जाए तन।

ज़िन्दगी तो इक सफ़र से कम नहीं
अनमना चलना पड़ेगा पाँव को,
राही भटक ले सारे विश्व भर में
लौट आना ही पड़ेगा गाँव को।
   संकल्प के ऊँचे क़िलों को जीतना है
    इन हड्डियों में समाये कितनी थकन।
रोज़ सपने बिन बुलाये अतिथि से
आ धमकते द्वार पर मेरे सवेरे
उन को टूटना ही था अगर आख़िर
क्यों लगाये मेरे नयन में डेरे।
    फिर भी देखता रंगीन सपने नित
    क्या पता मन मीत से हो जाए मिल।
पर्वत चोटियाँ देखो बुलाती हैं
हरी घाटी गूंजती है गीत से
घृणा के ज्वाला मुखी नित उबलते हैं
सब दिलों को जीतना है प़ीत से।
    मेरे शब्द करते ऊँची घोषणा यह
    यहाँ होगा फिर मुहब्बत का चलन।