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मंज़िल पे न पहुंचे उसे रस्ता नहीं कहते / नवाज़ देवबंदी

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मंज़िल पे न पहुंचे उसे रस्ता नहीं कहते
दो-चार कदम चलने को चलना नहीं कहते

एक हम हैं कि ग़ैरों को भी कह देते हैं अपना
एक तुम हो कि अपनों को भी अपना नहीं कहते

कम हिम्मती, ख़तरा है समंदर के सफ़र में
तूफ़ान को हम, दोस्तों, ख़तरा नहीं कहते

बन जाए अगर बात तो सब कहते हैं क्या क्या
और बात बिगड़ जाए तो क्या क्या नहीं कहते