मंजिलें हैं सामने, रास्ता निहां नहीं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
मंजिलें हैं सामने, रास्ता निहां नहीं
याद कर उसे ज़रा तुझ पे गर अयां नहीं
स्वर्ग, नर्क हैं यहीं पाप पुण्य के सबब
दो जहां यहीं पे हैं, तीसरा जहां नहीं
चिलमनों की ओट से दीद-ए-महजबीं हुयी
रू-ब-रू मिले यहां, ख़्वाब का गुमां नहीं
है निशाने बाज़ वो सामने शिकार के
बेबसी तो देखिए, तीर है कमां नहीं
दो दिलों के दरमियां थी तपिश वो प्यार की
आग तो लगी रही, बस उठा धुवां नहीं
नींव हुस्न की यहां, और छत है इश्क़ की
प्यार से बना है घर, ये फ़क़त मकां नहीं
जा रही है ज़िन्दगी रूठ कर तिरी उसे
रोक ले पुकार कर, मुंह में क्या ज़बां नहीं
अब तू ही बता मुझे, क्या क़ुसूर है मिरा
तेरे साथ मैं गया हूं, कहां-कहां नहीं
जाएगा भला किधर, तू बता 'रक़ीब' अब
हर तरफ़ हैं मयकदे, चाय की दुकां नहीं