भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मंजिलें हैं सामने, रास्ता निहां नहीं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मंज़िलें हैं सामने रास्ता निहाँ नहीं
याद कर उसे ज़रा तुझपे गर अयाँ नहीं

फल मिलेगा कर्म का सुख यहीं है दुःख यहीं
दो जहां यहीं पे हैं तीसरा जहां नहीं

चिलमनों की ओट से दीदे मह-जबीं हुयी
रू-ब-रू मिले यहां ख़्वाब का गुमां नहीं

है निशाने बाज़ वो सामने शिकार के
बेबसी तो देखिये तीर है कमां नहीं

दो दिलों के दरमियाँ थी तपिश जो प्यार की
आग तो लगी रही बस उठा धुवां नहीं

जा रही है रूठकर ज़िंदगी अभी उसे
रोक ले पुकार कर क्या तेरे ज़बां नहीं

जाएगा भला किधर तू बता 'रक़ीब' अब
हर तरफ हैं मैकदे चाय की दुकाँ नही