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मंडी चले कबीर / अवध बिहारी श्रीवास्तव
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कपड़ा बुनकर थैला लेकर
मण्डी चले कबीर
जोड़ रहे हैं रस्ते भर वे
लगे सूत का दाम
ताना-बाना और बुनाई
बीच कहाँ विश्राम
कम से कम इतनी लागत तो
पाने हेतु अधीर
माँस देखकर यहाँ कबीरों
पर मंडराती चील
तैर नहीं सकते आगे हैं
शैवालों की झील
‘आग‘ नही, आँखों में तिरता
है चूल्हे का नीर
कोई नहीं तिजोरी खोले
होती जाती शाम
उन्हें पता है कब बेचेगा
औने पौने दाम
रोटी और नमक थैलों को
बाज़ारों को खीर ।