मंत्र / शब्द प्रकाश / धरनीदास
ऊँ प्राण उठन्त धरत भूमि पग, श्रीगुरुचरण उचरना।
धरनी आदि अन्त मध्यहुतें, युग युग जरा न मरना॥1॥
तुलसी कण्ठ तिलक हरि मन्दिर, धरनी धनि सो देही।
रामानँद अवतार छाप कलि, मुक्तिको मारग देही॥2॥
आतम-राम-राम रस पीवे, पीवे प्रेम पियाला।
धरनी वरसे धार सुधारस, दरसे दीन दयाला॥3॥
हरि-जन आतम-राम पुजारी, परमातमको भावै।
धरनी परै कबूल कमाई, जो पाती पहुँचावै॥4॥
पार ब्रह्म परमातम आतम, सृष्टि सकल उपजाई।
धरनी सो प्रभु दाता भुगुता, जनम सकल सेवकाई॥5॥
साधु को चरनामृत उठि लीजै, पी जै प्रीति बढ़ाई।
धरनी कर्म कबहुँ नहि लागै, भवसागर तरि जाई॥6॥
महाप्रसाद महातम कनिका, ले मुख-मध्य चलावै।
धरनी तीरथ व्रत फल जेतो, घर वैठे फल पावै॥7॥
जीवन धन मन प्राण समर्पण, शयन समय सब कीजै।
धरनी हृदय कमल जँह केशव, तँह शरणागति लीजै॥8॥
कसना करो कृष्ण को सुमिरो, चलो सन्त के साथे।
धरनी आग पाछ जनि सोचो, गुरु-प्रसाद धरि माथे॥9॥
कसना खेलो हरि हरि बोलो, मंत्रा आसन राखो।
धरनी चरनि खा टरि शंखध्वनि, जग जीवन यश भाखो॥10॥
राम 2 कहि धुँई सकेली, हरि हरि करत जगाई।
धरनी आसन बैठि आपनो, सुरति धनीसाँलाई॥11॥
बिनु जल जला कमल बिनु फूला, सरवर एक सोहाई।
धरनी गुरु गम तन मन तामेँ, प्रति दिन पैठि नहाई॥12॥
जिन जाना सो भये जानकी, जिन राधा सो राधा।
धरनी सो जन भेद जानि है, परम तत्त्व जिन साधा॥13॥
गंगा को जल आनि पात्र भरि, सन्त को चरण खटारे।
धरनी जो अचवन करिये तो, बिना अस्त्र अरि मारे॥14॥