भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मंथन / सुप्रिया सिंह 'वीणा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बेमतलब बहलाबोॅ नै,
हल्का में टरकाबौ नै।

समझाी के बुतरू हमरा,
झूठ-मूठ समझावोॅ नै।

सौंसे दुनिया के रानी हम्में,
बाहर ताला द्वार लगावोॅ नै।

माय आँख पहरा में सीखलौं,
देवी कहि केॅ भरमावोॅ नै।

बलिदानी पाठी नै हम्में,
लकड़ी रं सुलगाबोॅ नै।