मई का पहला दिन / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
हाँ प्रिये, अभी फूलों के साथ खेलने की घड़ी नहीं
जबकि हमसब खड़े हैं अपनी तबाही के बिलकुल सामने
हमारी आँखों में किसी सपने का नीला नशा नहीं
हम सेंकते हैं ख़ाल अपनी चिलचिलाती धूप में।
चिमनी के मुँह से सुनो सायरन का शंख
हथौड़ी और निहाई गा रहे हैं गीत
तिल-तिल बढ़ती मृत्यु में भी है अनगिनत जीवन
जो जीवन को करना चाहता प्यार।
प्रेम की तमाम सौगातों पर पहरा बिठाकर
मौत का क़र्ज नखदन्त को सौंपकर
सारे बन्धन टूट जाएँगे जागरण के छनद में
मुस्करायेगा चमकीला दिन दिगन्त पर।
सदियों से अपमानित ग़रीबों के रुदन से
एक-एक साँस बोझिल है, शर्मिन्दा है
मौत के डर से, कातर हो बैठ जाना
नहीं, अब और नहीं, पहनो...पहनो लड़ाई का बाना।
आज फूलों से खेलने का नहीं दिन प्रिये,
आ चुकी हो जबकि तबाही की ख़बर,
इस मुसीबत की घड़ी में चाहे राह जितनी भी कठिन हो
यौवन का उत्साह पहचान लेगा अपनी डगर।