मकर पर्व / अमरेंद्र
बढ़ा और हेमंत शिशिर को आगे-आगे करके,
लेकिन दीप्त, चैत में जैसे, अंग-अंग भास्वर के.
उठा और फिर ठहर गया था सहसा क्षिति पर आकर,
सेनापति के रूप-भेष मंे वहाँ कर्ण को पाकर।
दिक्पालों को ज्ञात नहीं है किनकी कौन दिशाएँ,
आँखें रोके खड़ी हुई हैं चारो ओर हवाएँ।
सागर में भीषण ज्वारे हैं, एक झलक को पाने,
यमुना की लहरें तब कैसे रोक किसी की माने!
अन्तरिक्ष में जुटी हुई हैं भू की सभी विभाएँ,
रण में रविसुत की है कैसी, देखें ज़रा कलाएँ।
उधर चीर, चानन, बड़ ुआ में हलचल है सागर की,
मंद्राचल का शिखर छू रहा सीमा है अंबर की।
मिलते ही आदेश सुयोधन का कोलाहल भारी,
धेनु-स्वर्ण का दान, विप्र से शुभ-शुभ की तैयारी।
गूँजे चारण और मगध-जयकार कर्ण की जय में,
रुके हुये हैं चरण काल के जाने किस निश्चय में।
रणभेरी का नाद उठा, तो गूँजे गगन-दिशाएँ,
पर्वत-वृक्ष लगे; अभिनन्दन में ज्यों हाथ हिलाएँ।
एक दिव्य रथ वही खड़ा था, कर्ण तुरत चढ़ आया,
धवल चंद्र-सा शंख उठाकर घन-सा उसे बजाया।
भरा सृष्टि का विवर गूँज से महाघोष के बल से,
कौरव के दल पुष्कर में दिखते उत्फुल्ल कमल से।
और स्यंदन पर फहराती उत्तम श्वेत पताका,
रथ के ऊपर जमी पिघलती दिन में ही ज्यों राका।
श्वेत अश्व हैं जुते हुए; सदगुण की भीड़ जमी हो,
कुछ भी ऐसा वहाँ नहीं था, जिसकी लगी कमी हो।
श्वेत पताका पर फण काढ़े चिह्न नाग का अंकित,
खांडव वन के नागवंश की कथा समूची व्यंजित।
कवच, शक्ति, तरकश से सज्जित, वाण, धनुष, तोमर से,
निकला है ज्यों महाप्रलय ही शून्य विवर के घर से।
कहा कृष्ण ने, " पार्थ ज़रा देखो तो कर्ण-कला को,
व्यूह सैन्य का करता है भयभीत व्योम-अचला को।
" समरभूमि में आ चंचल हो महामकर ही क्रोधित,
अग्रभाग में कर्ण, नेत्रा पर शकुनि-उलूक ज्यों लोहित;
मध्यभाग में अश्वत्थामा, जलता भाल अनल हो,
कंठ-मध्य में दुर्योधन की सेना काल प्रबल हो।
" वाम चरण में कृतवर्मा की सेना क्या उफनाती,
नारायणी उसी के संग में भय को है थर्राती;
मध्यदेशीय योद्धा का दल पिछला वाम चरण हो,
बड़ा कठिन लगता है, कैसे इसका शक्ति-हरण हो।
" दक्षिणात्य की सेना दायें, कृपाचार्य भी संग हैं,
चित्रासेन फिर चित्रा पूँछ पर। बदले सारे रंग हैं;
महानाश ही निकल पड़ा है, अर्जुन ज़रा सँभल कर,
इस ज्वाला के सागर में तो लौह भस्म हो गलकर।
" संसप्तक के साथ दण्ड की, दण्डधान की सेना,
प्रलय-वृष्टि के बीच सिंधु में अपनी तरी है खेना।
दण्डधार की शक्ति-कथा जगत विदित अच्युत है,
कहो दूसरा कर्ण समर में खड़ा हुआ प्रत्युत है।
" यह केवल है खेल नियति का या कुछ भेद अलग है,
आज कर्ण के साथ पूर्व का भारत ही लगभग है।
अंग, बंग ही नहीं, कलिंग भी और पौंड्र उमड़ा है,
आज कर्ण के पीछे-पीछे पूरा मगध खड़ा है।
" कुछ तो आखिर इसके पीछे बात धनंजय होगी,
आज नहीं कल बोलेंगे ही सच-सच ज्ञानी-योगी।
सब दोषी हैं, अघी, पातकी, ऐसा कहना छल है,
पार्थ, महाभारत के रण में यह क्यों हृदय विकल है!
" लेकिन अब क्या मंथन-उंथन समय सोच पर भारी,
और कर्ण के सम्मुख अपनी सेना की लाचारी।
पहले तो इस दण्डधार को रण में चलो सुलाओ,
महाबली भगदत्त कहाँ है, शर पर उसे उठाओ.
" क्षेमधुर्ति भी बचा हुआ है, अश्वत्थामा ही क्या,
बिन्द और अनुविन्द, दण्ड की घेराबन्दी त्रिज्या;
रथ को उसी ओर ले जाओ, इसमें छुपा कुशल है,
पांचालों पर कर्ण वज्र-सा गिरता काल प्रबल है।
" अभी सामने होना, यानी संकट निकट बुलाना,
किसी मोह के स्वप्न-व्योम में स्वयं को मत भरमाना!
करो प्रतीक्षा उचित समय की, यही कला है रण की,
जल्दीबाजी हुई अगर तो समझो युक्ति मरण की।
" कृपाचार्य या भीष्म-द्रोण से अलग कर्ण का मन है,
क्षमाभाव ही जिस दानी का सबसे बढ़ कर धन है।
समर शुरू होने के दिन ही मैंने यह चाहा था,
अंगदेश के इस रविसुत के मन को तब थाहा था।
" कहकर यह कि ' जब तक रण में होंगे भीष्म पितामह,
न जाने कितने दिन ठाने लंबा युद्ध भयावह;
तब तक क्या वह बाहर ही बैठेगा लिए प्रतीक्षा?
टुकुर-टुकुर ताकेगी उसकी रण-कौशल की दीक्षा?
" क्यों न तब तक पांडव की सेना के ही संग होले;
अभी कर्ण सेनापति होगा, कुछ तो रविसुत बोले;
और पितामह जैसे ही पायेंगे लोक अमर को,
चाहे तो वह लौट चले कौरव के दल में, घर को।
" लेकिन पार्थ, कहा क्या उसने इसको भी तुम जानो,
धरती के इस धर्मपुरुष की निष्ठा को पहचानो।
कहा कर्ण ने ' मेरा तन-मन एक सुयोधन के हित,
मुझ पर ही तो उसका है विश्वास सकल अवलंबित।
' अब तक छोड़ा नहीं साथ तो अब कैसे छोड़ ूँगा,
कूद पड़ा है महासमर में। मुुँह को मैं मोड़ ूँगा?
धर्म नहीं यह अंगदेश का चाहे जिसका होले,
क्या मंदार डिगेगा कुछ भी, कोई जितना झोले।
' एक वचन का, एक धर्म का, एक शपथ का रविसुत,
मैं अपनी ही शील-बुद्धि पर जमा रहूँगा अच्युत।
' मैं युुयत्सु तो नहीं, लोभ में इधर-उधर हो जाऊँ,
एक पंथ पर रहा आज तक, अपना धर्म निभाऊँ।
' नागवंश के वंशज का जो हंता है, कुलघाती,
वनवासी के शांत निलय में कालानल उत्पाती।
केशव, क्या कहते हैं मुझसे, उसी पक्ष में जाऊँ,
अंगदेश के शील-धर्म को मैं ही यहाँँ लजाऊँ?
' जिसने अपनी मातृभूमि को गौरव मान दिया है,
दया-धर्म के पालन से बलि को सम्मान दिया है।
' पार्थ भले ही मेरा भाई, लेकिन पहले बैरी,
उसको क्या जीने का हक है, जन का क्रूर अहेरी!
' रण में विजय सुयोधन की ही नहीं; आग की होगी,
एक साथµयोगी की ज्वाला; सत्ता का सुखभोगी!
केशव, मेरी नहीं लीजिए, कुछ भी तनिक परीक्षा,
टूटे जिससे वंश-देश की या फिर मेरी दीक्षा। '
कहते-कहते रुके कृष्ण क्षण आँखें बन्द किए ही,
फिर कहने वह लगे पार्थ से बिन विश्राम लिए ही,
" पार्थ, कर्ण सचमुच में अच्युत, इसको कौन डिगाए,
खड़ा हुआ है शैलराज, क्या अंधड़ इसे हिलाए!
" देखा नहीं, झपट कर कैसे धरा युधिष्ठिर को था,
सूख गया था धर्मराज के प्राणों का ही सोता,
और नकुल तो कोमल-सा पत्ता बन डोल गया था,
इस पर कैसा व्यंग्य कटीला रविसुत बोल गया था।
" भले तुम्हारे वाण कर्ण के रथ को बहुत ढकेले,
और कर्ण के बाण हमारे तीन हाथ ही ठेले।
तुम कहते हो, तीन हाथ पर 'वाह-वाह' क्यों बोलूँ?
रविसुत के ही रण-कौशल पर अपना हृदय उछालूँ?
" सोचो पार्थ, तुम्हारे रथ का कृष्ण सारथी जब है,
रथ के शीश-शिखर पर बैठा मारुतपूत अलग है;
तब भी कर्ण बाण से रथ को तीन हाथ तक ठेले,
ज्यों अबोध शिशु खेल-खेल में अट्ठा-गोटी खेले।
" इसीलिए कहता हूँ तुमसे, बच कर रण करना है,
जरा हुई जो चूक, कर्ण के हाथों ही मरना है।
पार्थ, भले ब्रह्मास्त्रा नहीं हो अब तो इस योद्धा को,
लेकिन एक अस्त्रा है अब भी हरने हर बाधा को।
" बहुत यत्न से जुगा रखा है कंचन के तरकश मंे,
ऐसी कोई शक्ति नहीं है जो न उसके वश में;
अहिमुख कहने भर को ही यह, महाकाल का मुँह है,
शोणित से रंजित काली की जिह्वा ही टुह-टुह है।
" जिस पर छूट गया बस समझो अंत उसी क्षण आया,
यह नाराच नहीं है, यह तो तंत्रा-मंत्रा की माया। "
अभी और कुछ कहते केशव, अहिमुख छूट पड़ा था,
ज्यों मृगेन्द्र ही मृगशावक पर क्षण में टूट पड़ा था।
सँभले तुरत, किया रथ नीचे, केशव ने निज रथ को,
निकल गये कुछ दूर हाँकते पथ से अलग विपथ को।
समझा नहीं धनंजय ने कुछ यह क्या तुरत हुआ था,
महाकाल ने सचमुच में ही जैसे उसे छुआ था।
बचा अगर तो रथ के नीचे हो जाने के कारण,
स्वर्णमुकुट को छूकर ही बस निकल गया है मारण।
गिरा मुकुट, जल गया तुरत ही धू-धू कर वह क्षण में,
समझा नहीं किसी ने यह था, यह भी होगा रण में।
ब्रह्मा से निर्मित किरीट वह सब लोकों में चर्चित,
रणकौशल के लिए पार्थ को पिता इन्द्र से अर्जित;
सूर्य-चन्द्र और दीप्त अग्नि से आगे जो दिखता था,
वही रक्त के कीचड़ में निज कुटिल भाग्य लिखता था।
अहिमुख से बच गया पार्थ है, रविसुत ने यह देखा,
मुस्काया कुछ मन-ही-मन वह सोच नियति की लेखा;
और तभी नाराच दूसरा खींचा ज्यों तरकस से,
निकल पड़ा वह अश्वसेन फण काढ़े सीधे उससे।
चढ़ा वाण पर बोल उठा " मैं वही बासुकी-सुत हूँ,
मारा गया, यही सब सोचे, जिंदा मैं प्रत्युत हूँ।
माँ को मारा है अर्जुन ने, यही समय है रविसुत,
जहाँ पार्थ है, वहीं फेंक दो, धर्मपिता हे अच्युत। "
कहा कर्ण ने " उसी आग से मैं भी घिरा हुआ हूँ,
बदले के भावों से मैं तो सर तक भरा हुआ हूँ;
लेकिन कर्ण नहीं यह जाने, एक वाण को फिर से,
बैरी पर साधे दोबारा भीगा कर्म रुधिर से।
" तब क्या कर्ण अंग का भूपति, धर्म-दान का रवि है,
अश्वसेन, यह कर्ण काव्य क्या, सीधे-सीधे कवि है।
छिड़ा हुआ है समर, कर्ण यह अपना भाग्य लिखेगा,
जैसा अब तक दिखा हमेशा, हर क्षण वही दिखेगा। "
अश्वसेन की शंकाओं का बाकी अभी था उत्तर,
पाँच तीर आ लगे पार्थ के कर्ण-धनुष पर आकर;
ढीली हुई मुष्टि रविसुत की, धनुष हाथ से छूटा,
धूमकेतु-सा चमक गया, कुछ हिला व्यूह का खूंटा।
स्वर गूँजा, " क्या पार्थ देखते, वेधो, यही समय है,
धर्म-नियम में पड़े, तो समझो संभव नहीं विजय है।
अभी विवश है कर्ण; उठा, तो सबको उठा चलेगा,
कौन बचेगा, अगर तेज यह फिर से सुलग जलेगा!
" फँसा हुआ इस रक्त-कीच में अभी कर्ण का रथ है,
और तीर से घायल अँगुली शोणित से लथपथ है;
इस क्षण सोच-विचार किया, तो ग्रास काल का बनना,
मैंने देखा है रविसुत में खांडव वन का जलना।
" पार्थ, उठाओ धनुष, कीच में रथ है, यही समय है,
एक तीर जो चला कर्ण पर, पल में पास विजय है। "
कुछ-कुछ सुना, नहीं सुन पाया, लेकिन भेद खुला था,
देख गगन पर गगनस्वामी का झुका हुआ-सा माथा।
कुछ ऊँचा कर अपने स्वर को, लेकिन बहुत विनय से,
गिरि की गहन गुफा में गूँजे शंखध्वनि ही जैसे;
कहा कर्ण ने, " संकट में प्राणी का प्राण-हरण हो,
नीति-धर्म के जो विरुद्ध है, कैसे वही वरण हो। "
सुना कर्ण को, तो क्रोधित हो काल हो गये केशव,
वाणी की है वह्नि शिखा से आग लपटती भक-भकµ
" चुप ही रहो, कर्ण मत बोलो, उस दिन धर्म कहाँ था,
भीमसेन को जहर दिया था, तब सत्कर्म कहाँ था?
" तेरह वर्ष बिता कानन में जब लौटे थे पांडव,
वंचित रखा राज से इनको धर्म समझते तुम सब!
लाक्षागृह का खेल भयावह, बोलो धर्म यही है?
अभिमन्यु का वध ही बोलो, सत का कर्म यही है?
कृष्णा का वह चीरहरण, तब बोलो धर्म कहाँ था,
नीति-न्याय के व्याख्याता का तब सत्कर्म कहाँ था?
आज प्राण संकट में हैं, तो धर्म याद है आया,
ऐसा ही होता है, जब हो निकट मृत्यु की छाया। "
सुन केशव को, धैर्य कर्ण का रुका हुआ बह आया,
जहाँ रुका था कथन कृष्ण का, उसमें जोड़ लगायाµ
" केशव, कोई और कहे तो कहे, आप मत कहिए,
कहते हैं, तो पांडव के कर्मो ं पर चुप न रहिए!
" सुनिए, एक बात का उत्तर आप मुझे क्या देंगे,
पाँच वाण आचार्य द्रोण के; प्रश्न अगर निकलेंगे?
आप कहेंगे, प्राणों की रक्षा में सब कुछ संभव,
समरभूमि में शोणित कीचड़ बन जाते हैं अक्षत।
" फिर भी दिये सुयोधन ने जब पाँच वाण को तत्क्षण,
किसका था क्षत्रित्व उजागर, कौन धर्म का तारण?
जो माँगे प्रतिदान दान का, किये कृत्य की कीमत,
उसके माथे पर केशव क्यों चढ़ा रहे हैं अक्षत!
" रण है, तो क्या धर्म दलित हो एक पार्थ के कारण?
पुण्य कर्म ठहराए जाएँ सभी तरह के मारण?
अभिमन्यु जो मरा समर में, जीवित क्या लक्ष्मण है?
दुर्योधन-सुत-समर-शौर्य से गर्वित कैसा रण है!
" लेकिन हाहाकार कहाँ है, सुत की खातिर ऐसे?
पागल होकर नाच रहे हैं पांडव रण में जैसे;
और वही फिर, दोष किसी का, पर मेरे ही सर पर,
पार्थ-विजय के साथ कृष्ण ही नहीं, खडे हैं शंकर।
" केशव से क्या छुपा हुआ है धर्माधर्म-कथाएँ,
बर्बरीक या भूरिश्रवा की, किसकी कथा सुनाएँ!
जो अधर्म है, पांडव दल का धर्म वही दिखता है,
और कर्ण के सत्कर्मों को पाप कर्म लिखता है।
" भूल रहे हैं, कीचक से द्रौपदी-शील का मर्दन,
कहाँ हुआ था वृहन्नला के निठुर हृदय में कर्दन?
अश्वसेन की माता को क्या मैंने मार गिराया?
मैंने नहीं पुरुष के गौरव को है कभी लजाया।
" माँ को दिया वचन, तो रण में छोड़ दिया पांडव को,
छोड़ धनंजय को भी देता, भूलूँ क्या खांडव को!
केशव, क्या कृष्णा का मैं अपमान कभी कर सकता?
शील-रूप जिसका ही मेरे मन में रहा महकता!
" कवच और कुंडल ले जाता छल से, धर्म नियम है (?)
मृत्युभेद को पूछ, मारना यह सत्कर्म परम है (?)
नर-कुंजर का भेद कहे बिन गुरु के प्राण हरे जो,
क्या वह धर्मतनय है, केशव; धर्म देख सिहरे जो!
" राज्य बसाने की खातिर वन-जन का नाश है पावन?
जो इसका प्रतिकार करे वह पापी घोर नराधम?
अग्नि देव के क्षुधा-शमन को अनगिन बलि चढ़ जाए,
कैसा होगा न्यायशास्त्रा वह, यह भी धर्म कहाए!
" कह सकते हैं आप, दोष है मेरा गुरूतर भारी,
दुर्योधन के साथ रहा, तो धर्म-शील को गारी।
ये भी है स्वीकार मुझे, मैत्राी का धर्म निभाया,
नाच रही हो भले मृत्यु की मेरे सर पर छाया।
" देख रहा हूँ धर्म-कर्म को, जिसको चला निभाता,
वही आज इस संकट में मुझसे सम्बंध छुड़ाता।
कौन करेगा ऐसे में विश्वास धर्म पर कल से,
भक्तों के ही प्राण छले, संकट में आ कर, छल से! "
तभी पार्थ का वत्सदंत नाराच गिरा रविसुत पर,
कहो भाग्य ही; निकल गया जो कर्ण-मुकुट को छू कर।
छिटक दूर जा गिरा मुकुट, तो कर्ण-चेतना जागी,
वीर भेष में लौटा रविसुत, क्षणभर पहले त्यागी।
लगा काटने वाण पार्थ के एक नहीं दस-दस को,
लगा मेटने अर्जुन के सारे ही अर्जित यश को।
वश से बाहर देख कर्ण को क्रोध पार्थ का उबला,
छूटा फिर रौद्रास्त्रा भयंकर कालानल-सा निकला।
रथ के घोड़े इधर-उधर बचने को दिखे विकल-से,
चक्का भी जा फँसा इसी से रक्तकीच के तल से।
जितना ही थे जोर लगाते अश्व जुते उस रथ से,
उतना ही धँसता था चक्का और वही फिर अथ से!
सोचा कुछ रविसुत ने मन में, रथ से उतरा नीचे,
चक्के को वह लगा हिलाने, करते आगे-पीछे;
धरती उठी, उठा कुछ पर्वत, उठा नहीं पर रथ है,
स्वेद-धार से सने अश्व हैं और कर्ण लथपथ है।
कहा कृष्ण ने अर्जुन से, " अब साधो वाण, धनंजय!
यही समय अब सिद्ध करेगा, किसकी होगी अब जय।
नीति-धर्म के ग्रह-विग्रह का नहीं समय अब बाकी,
यह तो क्षण है, पीर हरो तुम पांडव की, वसुधा की!
" अगर उठा ले गया कहीं जो रथ का चक्का, बल से;
हिला-डुला कर, इधर-उधर कर शोणित की दलदल से;
तो फिर देख चुके हो रण की इसकी सभी कलाएँ;
गलने वाली दाल नहीं है, कोई दाल गलाएँ।
" अभी काल है, महाकाल-सा टूट पड़ेगा क्षण में,
पांडव की सेना तब बोलो कहाँ दिखेगी रण में?
इसका भी दुख नहीं मुझे है, दुख है पार्थ इसी का,
बढ़ने वाला और बहुत है भारी दुख अवनी का।
" विजय-मोद-उन्माद सुयोधन-कौरव का तब जग में,
रौद्र नाचता फिरा करेगा अग-जग में, घर-घर में।
अभी धर्म मिटने के डर से इतने डरे हुये हो,
जब प्राणों का प्राण साथ में, फिर भी मरे हुये हो।
" कल तो कौरव के भय से यह धर्म धँसा ही होगा,
सृष्टि-अंत तक नाश-ध्वंश का राज बसा ही होगा;
संतों के मुँह बंद मिलेंगे, ऋषियों की चुप वाणी,
सहमा-सहमा गगन मिलेगा और भूमि कल्याणी!
" अनल-पवन के मुँह पर ताले, सागर भ्रमित मिलेगा,
मंदिर के देवासन पर दानव का रास खिलेगा;
वह भविष्य कैसा तो होगा, कहना बहुत कठिन है,
अभी मोह में फँसे अगर तो दूर नहीं वह दिन है।
" यह मत समझो कर्ण के लिए घृणा भरी है मन में,
सच पूछो तो कौन कर्ण-सा दिखता है त्रिभुवन में;
लेकिन कुल-रक्षा में कोई एक पुरुष जो बाधा,
और ग्राम-रक्षा में कुल ही अगर प्रतीते व्याधा;
" जहाँ देश की रक्षा हो, तो वहाँ ग्रामहित क्या है,
पर पहले अपनी रक्षा है, मिथ्या किंचित क्या है।
साधो वाण, यही अवसर है, लोकमुक्ति की खातिर,
घेरे न अवसाद तुम्हें अब, ले दे के यह फिर-फिर!
" लोकशांति के लिए कर्ण का मोह त्यागना होगा,
यह निशीथ का काल नहीं है, पार्थ जागना होगा;
साधो वाण, यही अवसर है, श्रीसुहाग को वर लो,
उड़ते हुए काल को नभ में अभी वाण से धर लो।
" बचा हुआ है और समय कुछ संध्या उतर चलेगी,
साधो वाण, पार्थ मत चूको, सम्मुख जीत मिलेगी।
खड़ी हुई है विजय तुम्हारी, नीचे विजय पड़ा है,
लेकिन यह तब तक ही जबतक रथ का चक्र गड़ा है। "
मुस्काया फिर एक बार था रविसुत उसी तरह से,
घिरा हुआ साढ़े साती से, बोला निकल गरह सेµ
" मैं भी सबकुछ समझ रहा हूँ, क्यों अनीति पर केशव,
शिव के मन में जाग गया है, क्यों हठात यह भैरव!
" जिस शंका से आप ग्रसित हैं, वह निर्मूल नहीं है,
यही बात जो मैं सोचूँ, तो वह भी भूल नहीं है।
कह सकते हैं आप, गर्व से भरी आप की सेना,
विजय भाव से भरे वीर उत्पात मचाएंगे ना?
" क्यों भविष्य की चिंता में हम वर्तमान को मारंे,
युद्धभूमि में बची लाज को ऐसे नहीं उघारें!
धीरे-धीरे बात खुल रही, क्योें गृहयुद्ध हुआ यह,
क्यों सौगन्ध शकुनि मामा की बरसांे छिपी रही यह?
" क्यों केशव से छुपी रही यह बात बहुत भयकारी!
कहते सब अन्तरयामी हैं; हम तो हैं संसारी!
तब क्यों दोष सुयोधन पर ही और कर्ण पर केवल?
अब तो बस इस वर्तमान का बचा हुआ है सम्बल।
" मरना तो मरना ही सबको, सबको प्राण गँवाना,
उसी मृत्यु की खातिर क्यों ये छल का ताना-बाना!
केशव, सब पर काल खड़ा है, अलग-अलग नामों से,
अभिधा ही है सत्य यहाँ पर सौ-सौ उपमाओं से।
" सुनिए, रण में हार हुई जो आज धर्म की, तय है,
आने वाले भी भविष्य में धर्म-नीति का क्षय है।
लेकर के दृष्टान्त आज का, पापलिप्त जग होगा,
लहूलुहान धरती पर लुंठित होगा ही पनसोखा।
" जो अधर्म है, वह अधर्म है; धर्म नहीं हो सकता,
योगी, संन्यासी, साधू का कर्म नहीं हो सकता;
मेरा क्या, मैं तो अपना इतिहास लिए चलता हूँ,
सूर्यपुत्रा मैं होकर भी उपहास लिए चलता हूँ।
" केशव, जब तक श्रेष्ठ वंश का अहंकार जग ढोए,
जब तक दीन-दुखी का मन भी इस धरती पर रोए;
राज्यसुखों की खातिर जब धरती के रोम जलेंगे,
वहाँ-वहाँ पर एक कर्ण क्या, सौ-सौ कर्ण मिलेंगे।
" जो कुछ किया, समय को सीधे सीख-सबक है, केशव,
पाकर विजय देखते रहिए, अर्जित रण का वैभव।
लगता है, वह शाप भूमि का निकट खड़ा हँसता है,
मेरी ही काया को मेरे प्राणों से कसता है।
" लेकिन कैसे छोड़ ूँगा संकल्प अधूरा रण में,
खांडव-नागों के वैरी को अभी ग्रसूँगा क्षण में।
रथ का चक्का धँसा हुआ है, धँसे और धँस जाए,
चाहे मेरे प्राणों पर बंधन जितना कस जाए.
" रुके शिराओं के शोणित ही, काया लगे शिलावत,
कभी नहीं होने वाला है कर्ण कहीं से आहत;
रुकिए, अभी धनुष धरता हूँ, रथविहीन ही होकर,
विजयी कौन हुआ है ऐसे सचमुच रण में रोकर? "
सँभला ही था कर्ण धनुष को अपने कर में लेने,
रणकौशल को और नई कुछ पूर्ण कलाएँ देने;
गूँजी थी टंकार पार्थ के धनु की महासमर में,
वाण आँजलिक छूट पड़ा था, नाद भरा अंबर में।
बढ़ा सुदर्शन की ही गति से, झुका कर्ण की ओर,
दिवस सांध्य के संधि समय को क्षण में गया हिलोर।
देखा रवि ने पश्चिम नभ से, होकर गिरा अचेत,
हुहुआने लग गयी समर में प्रबल वायु की रेत।
धरती काँपी, काँपे पर्वत, सरिताएँ गति रोक,
क्रन्दन करने लगा समर में अखिल भुवन का शोक;
छाती लगी पीटने दुख से घोर तमस की रात,
उधर कृष्ण के शांत हृदय में उठते झंझावात।
सबने देखा घटा घिरी, कुछ बूँदे बरसीं, मौन,
घोर अंधेरे में चुपके-से रोया था वह कौन?
कोलाहल रुक गया अचानक, रौद्र हो गया शांत,
गहन वेदना में डूबा था रण का पूरा प्रांत।
जितनी देर रहे केशव थे वहाँ कर्ण के पास,
खड़ी रही कुछ दूर मृत्यु ही, शीतल-सा आभास।
कहा कर्ण ने, " नहीं जानता, जीत हुई या हार,
छोड़ रहा हूँ धर्म-नीति पर प्राणों का उपहार।
" केशव, कभी दलित कुल में भी लेकर के अवतार,
यह भी जानिए कुलिन कुलों का क्या है अत्याचार!
तब कहिएगा, क्या अधर्म था और धर्म क्या मेरा,
आँखों के आगे यह केशव कैसा घोर अँधेरा! "
देर तलक ही बात हुई थी, दोनों के ही बीच,
तब तक मृत्यु शोक में डूबी, विचलित रही नगीच।
नहीं सुना, हैं शंख बजाते पांडव भाई मिल के,
चला गया अवधूत शांत हो सबसे दूर निकल के.
लौटा हो मधुमास कुसुम के सौरभ का ले भार,
अपने पीछे छोड़ शिशिर का मार्गशीर्ष-विस्तार।