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मक़दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का / मोहम्मद रफ़ी 'सौदा'
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मक़दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का
जूँ शम्मा सरापा हो अगर सर्फ़ ज़बाँ का
पर्दे को तअय्युन के दर-ए-दिल से उठा दे
खुलता है अभी पल में तिलिस्मात जहाँ का
टुक देख सनम-ख़ाना-ए-इश्क़ आन के ऐ शैख़
जूँ शम्मा-ए-हरम रंग झलकता है बुताँ का
इस गुलशन-ए-हस्ती में अजब दीद है लेकिन
जब चश्म खुली गुल की तो मौसम है ख़िज़ाँ का
दिखलाइए ले जा के तुझे मिस्र का बाज़ार
लेकिन नहीं ख़्वाहाँ कोई वाँ जिंस-ए-गिराँ का
हस्ती से अदम तक नफ़स-ए-चंद की है राह
दुनिया से गुज़रना सफ़र ऐसा है कहाँ का
‘सौदा’ जो कभू गोश से हिम्मत के सुने तो
मज़मून यही है जरस-ए-दिल की फ़ुगाँ का