मक़बूल फ़िदा हुसेन के प्रति : छह कविताएं / शहंशाह आलम
एक
इस समय कोई भी जीव
चुप नहीं है
इस समय किसी को
घर लौटने की जल्दी नहीं है
इस समय देवताओं को
कोई हड़बड़ी नहीं है
इस समय देवकन्याओं को
अपने सजने की चिंता नहीं है
इस समय किसी को
अन्न-जल की फ़िक्र नहीं है
इस समय समृद्ध होने का समय है
इस समय छायाओं के फैलने का वक्त है
इस समय सब कुछ दृश्य में है
इस समय थोड़ी देर
एकांत में बैठकर
इस समय अपने-अपने अश्व गज बाघ
पृथ्वी अनंत ग्रह नक्षत्र को छोड़कर
अपने-अपने मंगल-अमंगल को भुलाकर
हमें देखना चाहिए
हुसेन की पेंटिंग में
माधुरी दीक्षित को रंगों में तब्दील होते
और अद्वितीय सक्रियता के साथ
कला-दीर्घा में पहुंचते
दो
डांस डायरेक्टर नचाए तो वह नाचती है
अपने भीतर की पूरी उत्तेजना को समेटे
हीरो कहे तो लिपटती है ज़ोर से
निर्देशक कहे तो
उरोजों को चुहल करने देती है
नदी समुद्र की दिशा तक मोड़ती है
अपने हुसेन कहें तो
जानलेवा तरीक़े से चहचहा उठती है
चित्र-संसार में
बग़ैर किसी पूर्व सूचना के
अपनी संपूर्ण अदाओं के संग
अपनी संपूर्ण कलाओं के संग
सारे नगर को पर्युत्सुक करने
कभी मुंबई
कभी कोलकाता के
थियेटर में होती है
तो कभी आगरा जबलपुर बांदा
कभी डिब्रूगढ़ सागर
या दरभंगा मुंगेर पटना के थियेटर में
यह सच और झूठ का खेल है
प्रिय दर्शको
जो लगातार जारी है
इस कुछ हां कुछ नहीं के बीच
तीन
माधुरी दीक्षित को तो
सभी धक्-धक् करा रहे हैं
अपने बुढ़ऊ हुसेन चाचा भी
उसी के पर्वत
उसी की नाभि
उसी के देह-जल को
छूना चाह रहे हैं
तमाम छोकरे
आईने के सामने
और झील के पानी में
उसी की नक़ल भी
उतारती फिर रही हैं
ढेरों छोकरियां
किन्तु मैं
अपने दुखों में रोती
निढाल होती
उस लड़की को
हंसाने की अपनी इच्छाएं
इस लगातार गर्म होती जा रही धरा पर
बार-बार दोहराता चला आ रहा हूं
जिसका रोना
जिसका निढाल होना
इस अद्भुत-विचित्र मायानगरी में
कोई नहीं सुनता महसूसता
चार
देखते तो ज़रूर देख लेते
तुम अपने आस पास फैले हुए
गहरे सन्नाटे और गहरे अंधेरे को
महसूसते तो महसूस लेते
तुम भी नैना साहनी का दर्द
खोजते तो ज़रूर खोज लेते
तुम भी भंवरी बाई की लड़ाई का मतलब
सुनते तो ज़रूर सुन लेते
तुम भी विस्थापित क्षमा कौल की आवाज़
समझना चाहते तो ज़रूर समझ लेते
तुम भी हमारे घरों की स्त्रियों के दुखों को
उनकी ख़ामोशियों को
एक अकेली नहीं थी
पूरे परिदृश्य में
माधुरी दीक्षित छाई
जिसकी एक-एक अदा को
तुम निखारते रहे अपनी कला में
जिसे तुम निहारते रहे सौ-सौ बार
‘हम आपके हैं कौन' में
और सपनाते रहे इस गजगामिनी की
दिगंबर देह को
पांच
मालूम नहीं क्यों
सबसे अधिक आह्लादित
हुए जा रहे हैं
अपने म़कबूल फ़िदा हुसेन
मालूम नहीं क्यों
सबसे अधिक दिल भी
कचोट रहा है उन्हीं का
मालूम नहीं क्यों
सबसे ज़्यादा भीड़ से घिरी हुई
और सबसे ज़्यादा अकेली है
माधुरी दीक्षित
मालूम नहीं क्यों
माधुरी के माधुर्य पर
मोहित हैं हुसेन
और माधुरी फ़िदा है
फ़िदा हुसेन पर
मालूम नहीं
मालूम नहीं
छह
कितना अच्छा है
हुसेन अपने घर लौटेंगे
ब्रश को धोकर
और रंगों को समेटकर
कितना अच्छा है
माधुरी दीक्षित अपनी किसी
नई फिल्म का क्लाइमेक्स निबटाकर
अपने घर लौटेगी
शायद लौट जाएं
आप सब भी अपने घर प्रिय पाठको
प्रिय श्रोताओ
कितना अच्छा है
कितना अच्छा है
ऐसा होना परंतु
सब-सब आप सब
अपने-अपने घरों से देखेंगे कि
काम पर से लौटते हुए कुछ अदद पिता
मोरचे पर से लौटते हुए कुछ अदद घायल सिपाही
नगरपालिका से लौटते हुए कुछ अदद मेहतर
दवा लेकर लौटते कुछ अदद लड़के
रह गए हैं घर पहुंचने से
और ख़बरों में आने से
चुप भी कर यार
हुसेन हंस देंगे
माधुरी दीक्षित हंस देगी
उनके प्रशंसक हंस देंगे
पर एक ज़ख़्म होगा
जो मेरे अंदर
बार-बार हरा होता रहेगा।