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मक़्तानामा / कमलकांत सक्सेना

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लो जले अंगार अधरों पर कमल।
हो गये शृंगार ग़ज़लों पर कमल।

आपकी अनुभूतियों के गांव में
नाचते झंकार गीतों पर कमल।

लोग तो कहते रहे सुख से जियो
पर चले दुश्वार राहों पर कमल।

जब चले निज पांव पर ही तो चले
कब चले दो चार कांधों पर कमल।

है कहाँ रस प्यास वालों के लिए
कब मिले पतवार धारों पर कमल।

कुममुनातीं आस्थाएँ दोस्तो
टूटते घर-द्वार सिक्कों पर कमल।

वेदना-प्रासाद में कैदी हुए
रूप के आकार आँखों पर कमल।

अब अंधेरे ज्योति के अग्रज बने
घूमते परकार-चांदों पर कमल।