मक्खियाँ / नज़ीर अकबराबादी
यारो में चुप रहूं भला ताकि?।
मक्खियां तो बहुत हुई दर पै॥
चले आते हैं ग़ोल पै दर पै।
शोर है गु़ल है भन भनाहट है॥
कोई थूके कोई करे है कै़।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥1॥
पहले मज़कूर<ref>वर्णन</ref> किया है खाने का।
खाके फिर ज़िक्र किया पचाने का॥
कोई पीने का और न खाने का।
यह बुरा हाल है ज़माने का॥
सख़्त मुश्किल बड़ी खराबी है।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥2॥
दो चनों से जो मुंह चलाता है।
उसमें सौ मक्खियां वह खाता है॥
दाल रोटी पे क़हर आता है।
और जो मीठी चीज़ खाता है॥
उसने अल्लाह जाने खाई कै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥3॥
कपड़े उजले हैं या कि मैले हैं।
स पै गू मक्खियों के फैले हैं॥
सर से ता पा सड़े कुचैले हैं।
आदमी क्या कि गुड़ के भेले हैं॥
लद गये तार-तार सब रंगों पै<ref>नस और पट्ठे, सारा शरीर</ref>।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥4॥
दिलबरों की यह शमत आई है।
आंख मक्खी ने काट खाई है॥
ठोड़ी भौं आंख सब सुजाई है।
हुस्न की भी यह बद नुमाई है॥
रो गई रंग रूप की सब रै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥5॥
रंडियां कस्बी अब जो गाती हैं।
मक्खियां मंुह में बैठ जाती हैं॥
दम बदम थूकने को जाती हैं।
खांस खंकार सर हिलाती हैं॥
तो भी बंधती नहीं है उनकी लै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥6॥
तबले वाले तो कुछ उड़ाते हैं।
ताल वाले भी खटखटाते हैं॥
ढोल वाले भी कुछ हिलाते हैं।
उनकी कमबख़्ती जो बजाते हैं॥
भोंपू नरसिंगा और तुरई करने।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥7॥
कपड़ा जिनका फटा पुराना है।
वह तो कुल मक्खियों ने साना है॥
पायजामा तमाम छाना है।
बाक़ी अन्दर का पैठ जाना है॥
वह भी मंजिल वह अब करेंगी तै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥8॥
दूध में मक्खियां ही दाबी हैं।
खाने में मक्खियां ही चाबी हैं॥
पानी में तो यह मुर्ग़आबी<ref>जल-पक्षी</ref> हैं।
अलग़रज़ जो बड़े शराबी हैं॥
वह भी सब ओकते हैं पीकर मै।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥9॥
कोई ओके है रोटियां खाकर।
कोई डाले है पानी मतलाकर॥
कोई खांसे है ख़ाली उबका कर।
हद तो यह है कि सख़्त घबराकर॥
भूख में भी कोई करे है कै़।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥10॥
है ”नज़ीर“ अब तो शान में मक्खी।
घर के हर एक मकान में मक्खी॥
शहर की हर दुकान में मक्खी।
भर गई सब जहान में मक्खी॥
कोई खाली नहीं ग़रज़ अब शै<ref>वस्तु</ref>।
इस क़दर धूम मक्खियों की है॥11॥