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मगध-महिमा (पद्य-नाटिका) / भाग 3 / रामधारी सिंह "दिनकर"

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दृश्य ६

(प्रथम दृश्य की आवृत्ति सामने कल्पना खड़ी सुन रही है नेपथ्य के भीतर से इतिहास गाता है।)

इतिहास के गीत



कल्पने! तब आया वह काल।
उठा जगत में धर्म-तिलक-दीपित भारत का भाल
फिलस्तीन, ईरान, मिस्त्र, तिब्बत, सिंहल, जापान,
चीन, श्याम, सबने भारत के पद पर से गुरु मान।
भींग गई करुणा के जल से धरणी हुई निहाल।
कल्पने! तब आया वह काल।



करुणा की नई झन्कार।
साधना की बीन से निकली अधीर पुकार।
स्नेह मानव का विभूषण, स्नेह जीवन-सार,
सत्य को नर ने निहारा, स्यात्‌ पहली बार।
फट गया अन्तर जयी का देख नर-संहार,
जीतकर भी झुक गयी संकोच से तलवार।
करुणा की नई झन्कार।



एक बार कलिंग की करतूत से हो क्रुद्ध,
है कथा कि अशोक कर बैठे भयानक युद्ध।
जय मिली, पर, देख मृतकों से भरा रणप्रान्त,
हो उठा सम्राट् का भावुक हृदय उद्भ्रान्त।
देखकर रणभूमि को नर के रुधिर से लाल,
रात भर रोते रहे निज कृत्य पर भूपाल।

(पट-परिवर्तन)

दृश्य ७

(कलिंग की युद्धभूमि लाशों से पटी हुई धरती पर फीकी चाँदनी फैली हुई है घायल कराह रहे हैं, रह-रह कर पानी! पानी! की आवाज आती है। एक ओर जरा ऊॅंची जमीन पर मगध की राजपताका निष्कम्प झुकी हुई है, मानों, वह शर्म से अपना मस्तक नहीं उठा सकती। ध्वजा के दंड से पीठ लगाए हुए सम्राट् अशोक परिताप की मुद्रा में खड़े हैं।)

अशोक के गीत



जय की वासने उद्दाम!
देख ले भर आँख निज दुष्कृत्य के परिणाम।
रुण्ड-मुण्डों के लुठन में नृत्य करती मीच;
देख ले भर आँख धरती पर रुधिर की कीच।
मनुज के पाँवों-तले मर्दित मनुज का मान,
आदमीयत के लहू में आदमी का स्नान।
जय की वासने उद्दाम!



रण का एक फल संहार।
मातृमुख की वेदना, वैधव्य की चीत्कार।
गन्ध से जिनकी कभी होता मुदित संसार,
वे मुकुल असमय समर में हाय, होते क्षार।
देह की जो जय, वही भावुक हृदय की हार,
जीतते संग्राम हम पहले स्वयं को मार।
रण का एक फल संहार।



हमने क्या किया भगवान?
यह बहा किसका लहू? किसका हुआ अवसान?
कौन थे, जिनको न जीने का रहा अधिकार?
कौन मैं, जिसने मचाया यह विकट संहार?
ऊर्मियाँ छोटी-बड़ी, पर, वारि एक समान।
सत्य ओझल, सामने केवल खड़ा व्यवधान।
हमने क्या किया भगवान?



पापी खड्ग घोर कठोर!
ले विदा मुझसे, सदा को संग मेरा छोड़।
अब नहीं जय की तृषा, फिर अब नहीं यह भ्रान्ति,
अब नहीं उन्माद फिर यह, अब नहीं उत्क्रान्ति।
अब नहीं विकरालता यह शत्रु के भी साथ,
अब रॅंगूँगा फिर नहीं नर के रुधिर से हाथ।
जोड़ना सम्बन्ध क्या जय से, दया को छोड़?
खोजना क्या कीर्ति अपने को लहू में बोर?
पापी खड्ग घोर कठोर!



गूँजे धर्म का जयगान।
शान्ति-सेवा में लगें समवेत तन, मन, प्राण।
व्यर्थ प्रभुता का अजय मद, व्यर्थ तन की जीत,
सार केवल मानवों से मानवों की प्रीत।
मृत्ति पर रेखा विजय की खींचते हम लाल,
मेटता उसको हमारी पीठ-पीछे काल।
पर, विजय की एक भू है और जिसके पास,
मृत्यु जा सकती न, करती है अमरता वास।
ज्योति का वह देश, करुणा की जहाँ है छाँह,
अबल भी उठते जहाँ धर कर बली की बाँह।
दृग वही जो कर सके उस भूमि का सन्धान,
जो वहाँ पहुँचा सके सच्चा वही उत्थान।
गूँजे धर्म का जयगान।

(पट-परिवर्तन)

दृश्य ८

(प्रथम दृश्य की आवृत्ति कल्पना खड़ी सुन रही है नेपथ्य के भीतर से इतिहास है गाता।)

इतिहास के गीत



कल्पने! जीवन के उस पार।
चमक उठा आँखों के आगे एक नया संसार।
प्राणों की जब सुनी प्राण ने करुणा-सिक्त पुकार,
चू करके गिर गयी मुष्टि से स्वयं स्त्रस्त तलवार।
कल्पने! जीवन के उस पार।



दया की हुई जयश्री चेरी।
सकल विश्व में नृप अशोक की बजी धर्म की भेरी।
मैत्री ने मन पर मनुष्य के नयी तूलिका फेरी।
जीवन के पावन स्वरूप की करूणा हुई चितेरी।
दया की हुई जयश्री चेरी।



कल्पने! यह संदेश हमारा।
बसता कहीं परिधि से आगे जीवन का ध्रुवतारा।
पा न सके हम उसे सतह के ऊपर कोलाहल में,
मिला हमें वह जब हम डूबे अपने हृदय-अतल में।

चन्द्रगुप्त-चाणक्य समर्थक-रक्षक रहे स्वजन के,
हीन बन्ध को तोड़ हो गये पर, अशोक त्रिभुवन के।
दो कूलों के बीच सिमटकर सरिताएँ बहती हैं,
सागर कहते उसे, दीखता जिसका नहीं किनारा।
कल्पने! यह संदेश हमारा।

(पटाक्षेप)