मगर एक आवाज़(कविता) / लीलाधर मंडलोई
असोची त्यागमुद्रा में थका बैठा हूं
ऊबता हूं निष्पाप चेतना से
जुटा रहता हूं तिस पर
शिशिर भू दृश्य हो उठे हैं नेत्रसजल
घिरा हुआ सांत्वनाओं
नीति विधानों से
झुकता हूं झूठे चमत्कारों की सिम्त
अनुवाद बनने के विरूद्ध मेरे इरादे
चीखता हूं तो उसका अनुवाद सुनाई से बाहर
अनुपस्थित तथ्यों की सूली पर हताहत सच
वापसी के रास्ते पर चौकसी झूठ की
रहस्य के पर्दों को उठाने में बंधे हाथ
कैद उस शपथ में जो ली गई एक संवैधानिक सुबह
बहुत-सी आकृतियां एक दूसरे में गड्ड-मड्ड
पुलिस, अपराधी, कानूनविद और जनसेवक
होना नहीं चाहता उदास और पराजित
विजय में कोई जबरन दिलचस्पी नहीं
सच दुबका है उस अवांछित जगह
जुटाए गए जहां सारे सबूत हत्या के
बहुत खूब हंसी है विजयोन्माद की
और एक दलित कोना है अंधेरे से घबराता
वहां माचिस की सीली तीलियों में
कुछेक हाथ हैं आग को ढूंढते
बर्फ में मगर एक आवाज है चेहरा उठाए