Last modified on 13 अगस्त 2018, at 20:49

मचलते गाते हसीं वलवलों की बस्ती में / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

मचलते गाते हसीं वलवलों की बस्ती में
रहे थे हम भी कभी मनचलों की बस्ती में

किसी तरफ़ से कोई संग ही न आन गिरे
ज़रा संभल के निकलना फलों की बस्ती में

ख़ुशी के दौड़ते लम्हे इधर का रुख़ न करें
ख़ुशी का काम ही क्या दिलजलों की बस्ती में
 
जो आ के बैठा वो दामन पे दाग़ ले के उठा
बचा है कौन भला काजलों की बस्ती में

चले चलो न कड़ी धूप की करो परवाह
रुकेंगे जा के हसीं आंचलों की बस्ती में

गुज़र गया हूं कभी बे-ख़राश कांटों से
छिले हैं पैर कभी मख़्मलों की बस्ती में

टपक रहा है लहू जिन की आस्तीनों से
वो लोग आन बसे हैं भलों की बस्ती में

हवा से कह दो यहां से गुरेज़-पा गुज़रे
करे न शोर बहुत जंगलों की बस्ती में
 
यक़ीं रखो कोई आफ़त इधर न आयेगी
सुकूं से बैठ रहो ज़ल्ज़लों की बस्ती में

बसे हुये हैं कुछ अह्ले-ख़िरद भी ऐ 'रहबर`
न जाने सोच के क्या पागलों की बस्ती में