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मच्छरदानी तो लगाते थे दादाजी / हेमन्त कुकरेती

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मच्छरदानी तो दादाजी लगाते थे
जैसे इसी काम के लिए होता था उन्हें रात का इन्तज़ार
कहा करते थे कि मच्छरदानी में सोने का मज़ा खुले में है
यह खुली जगह छत पर भी मिले तो चलेगा

हमने बहुत बाद में जाना कि चाँद के सरासर सामने
सप्तर्षियों को बाँधने और तारों को फँसाने का गुमान होता है
आती है हँसी अब सोचकर कि अपनी सुरक्षा के लिए छटपटाता
आदमी खुद को बहेलिया समझता है
और जानबूझकर शिकार हो जाता है अपने भय का

इन दुश्चिन्ताओं से अलग एक और भी पहलू है
मच्छरदानी के अन्दर सोने का कि
ढीठ मच्छर ख़ून चूसने के बाद मस्त होकर
मच्छरदानी की छत और दीवारों पर चिपक जाते हैं
पर भूलते नहीं होंगे कै़द में रहने का अनुभव
जो तमाम दवाओं के विष का स्वाद लेना सीख गये हैं
उनके लिए तो यह मौत जैसा ही होगा

खू़न चूसनेवालों के खिलाफ़ मोर्चा बाँधते फिर याद आते हैं दादाजी
मच्छरदानी को सलीके से लगाना धैर्य का काम है
दादाजी इत्मीनान से करते थे यह काम
फ़ौजी अनुशासन झलकता था इसमें, बर्दाश्त नहीं करते थे
बाहरी हस्तक्षेप
सुझाव ज़रूर सुनते थे

मच्छरदानी को समेटकर रखना मुसीबत लगती है
ज़रा देर हो जाय नींद खुलने में
मच्छरदानी धूप को बुलाती है और फँसा लेती है

लपेटकर चारपाई पर रखता हूँ मच्छरदानी
तो लगता है दादाजी थककर आराम कर रहे हैं
हमारे सामने तो वे कभी सोये नहीं
उनकी टाँगों की तरह लगती हैं चारपाई की डण्डियाँ
कमज़ोर लेकिन झुकने से इनकार करती हुई...