भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मच्छी री मच्छी / सुरेश विमल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मच्छी री मच्छी
विडम्बनाओं का जाल
तेरी आंखों में...

पुजारी उगाहता है
अन्नकूट की सामग्री
पहुँचाता है मखाने की खीर
मुखिया के घर
गांव वालों के हिस्से आती है
पाव रेत और सेर कन वाली
आधी रंधी बाजरी...
गरीबों को
अगले दिन मिलती है
यह भी...

मच्छी री मच्छी
कित्ता बड़ा छल
तेरी ताक में!

फूट आया चारागाह ने
नेता का बग़ीचा
किस-किस ने उसमें
अपने अपने खेत के हिस्से का
पानी नहीं उलीचा?
गदराए अंगूर
सूख गई ज्वार...

देखो भाई देखो
देख सको तो...
दारुण भूख से बिलबिलाते
हाथ भर की जीभ काढ़े
पथरीली, रेतीली पगडंडियों में
मुंह मारते हुए
ढोर-डंगरों को...देखो...

मच्छी री मच्छी
भूख की नकेल
तेरी नाक में...
है कोई चित्रकार?
तो बना ...
बना रे चित्रकार
लहलहाती हुई फसलें बना
धान काटता हुआ किसान बना
और उसे
निगलती हुई सी
महाजन की
एक जोड़ी आँख बना...

हुक्के की गुड़गुड़ाहट से ही
पता चलता है चित्रकार
कि किसकी मुट्ठी में है
उसकी नली...

महाजन की जूती का छापा
बहुत गहरा उभरता है
किसान के घर की ओर जाते
दगड़े की माटी में...
बना चित्रकार
जल्दी-जल्दी
एक जोड़ी पांव बना...

उतर आयेगा फिर अंधेरा
और रात के बाद
जब फिर से उजाला होगा
तो फेर देगा सफ़ाई वाला
पांव के इन छापों पर बुहारी...

झाड़ू गाएगी
गाएगी झाड़ू
सुबह का गीत...

मच्छी री मच्छी
कैसे तू जी लेती
इत्ती आग में?