भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मच्छ्नेच्छों माई मच्छ्नेच्छों / सुशील ‘सायक’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मच्छ्नेच्छों माई मच्छ्नेच्छों
गूँजता है स्वर सुबह-सुबह
आई है लिए डलियाँ
जिसमें उदधि–निधियाँ
बड़ी-बड़ी मच्छलियाँ
लेकर आई है वह
दाँतुर सी
साँवली-सी आदिवासी महिला
बार-बार पुकारती
मच्छ्नेच्छों माई मच्छ्नेच्छों
गूँजता है स्वर प्रातः प्रातः
टोकरियाँ में समेटेदंड-तुला, दराँत
देखती घरों को
जीविका प्रदाता जनों को
निकले कोई सुनकर आवाज़
द्वार खटखटाती
बार-बार पुकारती
मच्छ्नेच्छों माई मच्छ्नेच्छों
गूँजता है स्वर सुबह-सुबह
जब सुन कोई आता
ले सहारा टोकरी उतारती
मछली के गुण बखानती
उठा-उठाकर परीक्षण कराती
आने पर पसंद
करती है सही-सही वज़न
दराँत से मुंड पंख काटती
सिल्क पथोरती
बीचों-बीच चीरकर
करती है दो फाँटें
निकालती सारे काँटें
अपद्र्व्य करते बाहर
चलते तत्पर हाथ
झुकाएँ नीचे माथ
यही नहीं परिणति
उसके व्यापार की
बकायदा अपशिष्ट को उठाती
पास टुकरती
बिल्ली को डालती
धरती को हाथों से बुहारती
उस जगह को सँवारती
फिर हाथ पानी के डब्बे में धोकर
पल्लू से पोंछकर
दाय के लिए हाथ बढ़ाती
हिसाब लगाती
कुछ घटा-जोड़कर
सब ग्राहक पर छोड़ती
वह अनपढ़ कैसे लगाए हिसाब
पाई, छ्दाम
कैसे बनाए ग्राम
फिर उठाकर डलिया पुकारती
मच्छ्नेच्छों माई मच्छ्नेच्छों
ग्राहक को देवता सम निहारती
फिर-फिर पुकारती
मच्छ्नेच्छों माई मच्छ्नेच्छों ll