भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मछलियाँ / मोनिका कुमार / ज़्बीग्न्येव हेर्बेर्त
Kavita Kosh से
मछलियों की नींद कल्पना से परे है।
पोखर के सबसे अन्धेरे कोने में भी,
सरकण्डों के बीच, उनका आराम भी जागने जैसा है :
वे चिरकाल तक एक ही मुद्रा में पड़ी रहती हैं
उनके बारे में कुछ भी कह पाना बिल्कुल असम्भव है;
उनके सिर तकियों से टकराते हैं।
उनके आँसू भी बीहड़ में रुदन करने जैसे हैं – असंख्य।
मछलियाँ अपनी हताशा किसी इशारे से नहीं बता पातीं।
यही उस भोथरी छुरी के तर्क को सिद्ध करता है
जो उनकी रीढ़ को लाँघते हुए
उनकी पीठ के सलमे-सितारे फाड़ डालती है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : मोनिका कुमार