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मछलीघर. / विजयदेव नारायण साही

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मैं तुम्हें निमन्त्रित करता हूँ
कि मेरे साथ इस कल्पित खिड़की तक आओ
और ठण्डे काँच की इस दीवार को
होंठों से छुओ
यह स्पर्श तुम्हें परिशोधित कर देगा
ऊँचे शिखर की हवा की तरह ।

खिड़की के पार
तुम्हें अपनी ओर ताकती हुई
दो आसमान सरीखी आँखें दिखेंगी
और जैसे-जैसे तुम
नीचे से ऊपर टटोलते हुए
दीवार के सहारे उठोगे
वे आँखें तुम्हारे साथ उठेंगी ।

अब तुम वापस चले जाओ
और नीची निगाहों से
इस बन्द कमरे में खिले हुए
नाज़ुक फूलों, सफ़ेद सीपियों और सदाबहार पत्तियों के बारे में
विचारते रहो :

कोई आतुरता नहीं है
क्योंकि निगाह उठाने पर
उस पार वे दोनों आँखें तुम्हें बराबर दीखेंगी
निर्निमेष...
और तुम जब चाहोगे
धीरे-धीरे इस ठण्डे काँच की दीवार के सहारे
तृषाहीन आकर टिक जाओगे
परिशोधित ।