मछली बाजार की औरतें / सरिता महाबलेश्वर सैल
जब भी मैं
जाती हूँ मछली बाजार
एक आदत सी बनी है
उन औरतों को निहारती हूँ
देखती हूँ मछली बेचने का कौशल
पल में सोचती हूँ
चंद पैसों के लिए
सुबह से शाम लगाती हांक ये
बैठती हैं ये बाजार में
मैं सोचती हूँ
अगर ये न होती
इनके मर्दो की सारी मेहनत
सड़ जाती गल जाती
जो अभी है समंदर के लहरों से लड़ता हुआ
लाने को नाव भर मछलियां
एक मछली वाली है इन्हीं में
सूनी है जिसकी कलाई
मांग भी सूनी है
गांव की तिरस्कृत पगडंडी की तरह
चेहरा थोड़ा काला
कुरूप सा लेकिन मेहनत के रंग से दीप्त
उसके श्रम को सलाम है मेरा
जिसका पुरूष समंदर से लड़ते हुए
लौटा नहीं कभी लेकर मछलियां
मेरे सामने से
गुजरते हैं हजारों चेहरे
नित्य केशों में सफेद फूल बांधते
नथनी , बिंदी और पायल से सजी
और स्निग्धता से भरी
ये मछली बेचती औरतें
हर रात अपना श्रंगार
समंदर के लहरों के भरोसे ही तो करती होंगी
जिन पर सवार हो उनके पुरूष
समंदर की गहराई में ढूंढते हैं भूख का हल
मछली के रूप में
भरी टोकरी मछली बार बार उदास करती है उसे
और कमर पर खुँसी पैसे के बटुए को
देखती हैं कनखी से समंदर से टोकरी
और फिर थैली का सफर बडा़ मुश्किल होता है
इनमें मछली बाजार की औरतों का।