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मजदूरों का दर्द / साधना जोशी

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विष्व, राश्ट,प्रान्त, षहर, ग्राम,
प्रगति की राह पर बढ़ चले है,
विकास का नारा जोर से
गूंज रहा है धरा में अम्बर में

जिसके हकदार पूरे देष के साथ
एक मजदूर है
जो चट्टानों को चूर-चूर कर
कठिन राह बनाते है ।
इमारतों को सजा-सजा के
खुद आसमान तले सोते है ।

कारतूसों के विस्फोटक को
हर पल सहकर
दृढता का जीवन जीते हैं
उनके लिए विकास क्या ? विनास क्या
सम भाव में सहते हैं
जीवन के हर कर्म में
उन्हें तो धरती अम्बर का ही सहारा है ।

बच्चे जन्म लेते पत्थरों में
रेत की ढेर में खेलते है सोते हैं
न कीटाणु का डर, न बिमारी का भय,
उनका न बीमा है मौत के वाद में की सुरक्षा
न मौम के पहले की सुरक्षा है ।

न सरकार से गिला है उन्हें न उम्मीद
तपती धूप हो या कंम्पकपाती षर्दी ।

कभी दफन हो जाते हैं खण्डहरों के बीच में
षरीर मिट्टी में मिल जाता है पंच तत्व बनकर
बजट का हर सत्र गुजर जाता है
उनके लिए एक रुपय भी नजर नहीं आती है

उनकी न कोई सरकार है न सरकार से पहचान
देष के विकास में षमिल अनजान बनकर ।

न जाने किस पत्थर पर मौत का फरमान हो
कोन सा मिट्टी का ढेर कब्र बन जाय
केवल खबर बन जायेगी मजदूर पहाड़ो में
दब कर मर गये खबर भी दफन हो जायेगी बेजान बनकर ।

सड़क से गुजरते हुये उनके चेहरों को झांक लो
जो हर पल मुस्कराते हैं बेजान बनकर
उड़ती धूल में धुमिल चेहरों पर
केवल चमक होती हे कर्मषीलता ही की ।

औरते भी पीठ पर बच्चे को बॉध कर
घन चला रही है मां बनने वाली छप्पले उठा रही हैं
उसको भी मातृत्व अवकाष दिला कर
हर वर्ग की नारी को समान करा दे
सरकार के करखानों के मालिक के द्वारा
बिमा कम्पिनियों के द्वारा
उनके लिए भी कोई पॉलिसी बनजाये
मौत से पहले मौत के बाद भी वो इन्सा कहलाये ।

कफन के लिए उसके परिवार वाले न तड़फे
बिमारी में वह काफी तलाष न करे
कुछ दिनों की छुट्टी उसे भी मिल जाये
इस घरा पर कुछ एक रुपता बन जाये
मजदूर भी प्रगति के युग में इन्सान बन जाये
हर इन्सान उनके लिए भी भगवान बन जाये ।