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मजदूरों की बस्ती / रजनी अनुरागी
Kavita Kosh से
मजदूरों की बस्ती नहीं होती
वे जहाँ रुक जाते हैं
बस जाती है वहीं उनकी बस्ती
वहीं सुलगने लगता है उनका चूल्हा
वहीं उठने लगती है सौंधी सुगंध
और वहीं पकने लगती है उनकी रोटी
वहीं खेलने लगते हैं उनके बच्चे
और वहीं पलने लगते हैं उनकी आंखों में सपने
और बस इतने से सुख से ही खुश होकर
वे उठा देते हैं ऊँचे-ऊँचे भवन और इमारतें
बसा देते हैं बड़ी-बड़ी बस्तियाँ
और निकाल देते हैं
दुर्गम पहाड़ों और बीहड़ जंगलों बीच से रास्ते
सिर्फ़ इतने से ही सुख से खुश होकर
वे बसा सकते हैं
एक बिल्कुल ही नई दुनिया।