मजदूर औरतें लौट जाती हैं / गौरव पाण्डेय
मजदूर औरतें
आती हैं दूर-सुदूर के गाँवों से
दिन-दिन भर खेतों में काम करती हैं
रोपती हैं धान खर-पतवार साफ़ करती हैं
अकेली नहीं आती ये
बहू, बेटी और पोतियाँ साथ लाती हैं
साथ होती हैं पड़ोस की तमाम मजदूर औरतें
पानी से भरे लबालब खेत में
सकेल कर साड़ी, कमर में बांधकर दुपट्टा
मारकर कछोटा छप्प्-छप्प कूद जाती हैं
एक-दुसरे पर फेकती हैं गीली मिट्टी-कीचड़
अंजुरी भर भर छीटे मारती हैं
समवेत स्वरों में हँसती हैं
ये अलग-अलग उम्र की औरतें
मिट्टी-पानी के मिलन रंग में रंग जाती हैं
दादी-चाची-माँ-बेटी-नन्द-भउजाई
जब खेत में ही होने लगती है झमा-झम बारिस
बच्चियों संग बच्चियाँ बन लोटती-पोटती हैं
शगुन मनाते रोपनी के गीत गाती हैं
इस तरह कब रोप देती हैं ये दस-दस बीघे धान
पता ही नहीं चलता
पता ही नहीं चलता दिन के अंत का
और ये अपनी हंसी-किलकारी खेतों में छोड़कर
रोपी गयी फसलों के प्रति निःस्पृह होकर
लौटने लगती हैं
कुछ रुपया मुट्ठी में दबाये, आँचर में गठियाये
कल कहीं और रोपनी की बात करते हुए
लौट जाती हैं
ये मजदूर औरतें