मजदूर औरत के लिए / प्रेम गुप्ता 'मानी'
दोस्तों,
उस औरत के बारे में
हर कोई सोचता है
हर पुरुष देखता है
और अपने भीतर भर लेना चाहता है
जिसकी छाती खूबसूरत अंगिया में कसी है
और देहयष्टि याद दिलाती है
सौन्दर्य की देवी-वीनस की
एक ऐसी वीनस
जिसके होंठ ही नहीं
वरन
पूरा तन ताज़े गुलाब-सा है
जो हँसती है तो फूल झरते हैं
देखती है
तो कलेजे के भीतर
पहुँचती है
ओस-सी ठंडक
पर दोस्तों...
उस काली औरत के बारे में
कोई क्यों नहीं सोचता
जो आज भी पत्थर तोड़ती है
इलाहाबाद के पथ पर
या
किसी घने पेड़ के नीचे
हाँका कर के ले जाई जाती है
और शिकार हो जाती है
दोस्तों-
उस बेबस औरत की ओर
क्यों नहीं देखते
जिसकी बदरंग खुली छाती से
बूंद-बूंद टपकता है दूध
पर,
उसका काला नंग-धड़ंग बच्चा
चिलकती हुई धूप में
मुँह में सूखा अंगूठा दिए
किसी टूटी डलिया के भीतर पड़ा
तड़पता है एक बूंद दूध के लिए
पर,
वह मजबूर औरत
बेबसी से सींचती है
अपने ही दूध से
टूटते हुए पत्थरों को
दोस्तों...
सोचना
देखना
और अंकपाश में भर लेना
अगर
आदमियत की इंतिहा है
तो देखो
एक बार इंसान बन कर
उस काली औरत की ओर
जिसकी बदरंग छाती
किसी अंगिया कि मोहताज नहीं
जिसकी छाती में
दूध नहीं, अमृत भरा है
और जिसके बाहर नहीं
बल्कि भीतर
क़ैद है
हजार-हजार वीनस
एक बेटी बहन व माँ के रूप में