मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे / इक़बाल
मजनूँ ने शहर छोड़ा है सहरा भी छोड़ दे
नज़्ज़ारे<ref>आलौकिक दृश्य</ref> की हवस हो तो लैला भी छोड़ दे
वाइज़<ref>उपदेशक </ref> कमाले-तर्क <ref>आत्म-समर्पण </ref> से मिलती है याँ मुराद<ref>अभीष्ट </ref>
दुनिया जो छोड़ दी है तो उबक़ा<ref>दूसरी दुनिया </ref> भी छोड़ दे
तक़लीद<ref>चापलूसी </ref> की रविश<ref>नकल </ref> से तो बेहतर है ख़ुदकुशी
रस्ता भी ढूँढ, ख़िज़्र का सौदा <ref>पगलपन </ref> भी छोड़ दे
शबनम की तरह फूलों पे रो और चमन से चल
इस बाग़ में क़याम<ref>स्थाई ठिकाना </ref> का सौदा भी छोड़ दे
सौदागरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है
ऐ बेख़बर जिज़ा<ref>वापसी</ref> की तमन्ना भी छोड़ दे
अच्छा है दिल के पास रहे पास्बाने-अक़्ल<ref>तर्क-शक्ति का संरक्षण</ref>
लेकिन कभी-कभी उसे तन्हा भी छोड़ दे
जीना वो क्या जो हो नफ़्से-ग़ैर<ref>उधार की सांसों </ref> पर मदार<ref> निर्भर</ref>
शोहरत की ज़िन्दगी का भरोसा भी छोड़ दे
वाइज़<ref>उपदेशक </ref> सबूत लाए जो मय<ref> मदिरा</ref> के जवाज़<ref> विरोध में </ref> में
इक़बाल को ये ज़िद है कि पीना भी छोड़ दे