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मजबूरी / उमा अर्पिता
Kavita Kosh से
पलस्तर उखड़ी हुई
बदरंग/मेरे कमरे की दीवारें
मुझे एक ऐसे
खोखलेपन का
अहसास कराती हैं, जो
इसमें रहने वाले
प्रत्येक व्यक्ति के भीतर,
साँसों को चीरता
हड्डियों में गहरे तक
उतर गया है।
मैं--देखती हूँ और
सहती हूँ क्यों कि
मेरी अपरिभाषित मजबूरी ने
मुझे हर कदम पर
समझौते की परिभाषा
लिखने को बाध्य कर दिया है।