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मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ गुनहगार नहीं हूँ / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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मजबूर-ए-मुहब्बत हूँ गुनह्गार नहीं हूँ
मैं गर्दिश-ए-हिज्रां का सज़ावार नहीं हूँ

इक जाम में बहके मैं वो मयख़्वार नहीं हूँ
यह किसने कहा साहिब-ए-किरदार नहीं हूँ

वल्लाह! कि दुनिया से मैं बेज़ार नहीं हूँ
बस ये है कि मैं उसका तलबगार नहीं हूँ

ख़ुद अपनी इनायात का मस्लूब हूँ ऐसा
शाइस्ता-ए-दाम-ए-रसन-ओ-दार नहीं हूँ

दीवाना हूँ, ला-रैब हूँ दीवाना वलेकिन
ये बात ग़लत है कि मैं हुशियार नहीं हूँ

बे-बाल-ओ-परी मेरी ज़माने पे अयाँ है
वो हाल है मैं अपना भी ग़मख़्वार नहीं हूँ

ख़ुद से ही मेरी जंग है मैदान-ए-ख़ुदी में
औरों से तो मैं बर-सर-ए-पैकार नहीं हूँ

इक हर्फ़-ए-मुहब्बत हूँ ज़रा पढ़ के तो देखो
आसाँ नहीं तो ऐसा भी दुश्वार नहीं हूँ

मैं ख़ुद पे अयाँ हूँ सर-ए-हंगामा-ए-हस्ती
साये की तरह गुम पस-ए-दीवार नहीं हूँ

हूँ ख़ुद से भी आगाह, ज़माने से भी आगाह
मोमिन हूँ प बेगाना-ए-ज़ुन्नार नहीं हूँ

अपनी ही हक़ीक़त से जो बेगाना हो "सरवर"
ऐसा तो मैं मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार नहीं हूँ