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मज़दूर हम / सुरेन्द्र रघुवंशी

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ढो-ढोकर अपने सिर पर भारी सामान
जिन्होंने बना दिए बड़े-बड़े सुन्दर मकान
उनके अपने सिर पर न छत है
और न ही ज़मीन पर अपना पक्का फ़र्श
मकान के नाम पर वे झोंपड़-पट्टियों में हैं

यह न तो कोई लतीफ़ा है और न अतिशयोक्ति
अमानुषिकता के फहरा रहे ध्वज की ओर इशारा करते हुए यह नग्न वीभत्स सच्चाई है
कि सूरज के ताप से पसीने में पिघलकर
जो अन्नदाता देश के लिए अनाज उगाता है
वही भूख और तंगहाली से करता है आत्महत्या अपने ही खेत के पेड़ से लटककर

फिर व्यवस्था क्या है
पाखण्ड और झूठ के पहाड़ के अतिरिक्त
धोखे के ऐसे बवण्डर के अलावा
जो आसानी से आँखों में धूल झोंक दे

जहाँ राज्य की अनीति ही नीति घोषित हो
अपने अधिकारों के लिए करुण पुकार
सत्ता की अहँकारी शक्ति के कोलाहल में
सुनाई ही न दे जहाँ हमेशा
वहाँ राज दरबार में
हाथ की पहुँच से बहुत ऊपर
बिना डोरी के टँगा धूल खाता न्याय का घण्टा
क्या अर्थ रखता है उम्मीदों के लिए