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मज़हब के खण्डहर / विनोद शाही

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आदिम देह ने
देखते देखते उतार दिए कपड़े
रेशम मार्ग पर

ख़ैरात में पशु से मिली थी
आदमी को देह आदिम
मज़हब ने उसे ढककर कहा
ले, आज से तू सभ्य है

सभ्यता को आदमी ने
वस्त्र सा पहना, छिपाया स्वयं को
ताकि ज़रूरत जब पड़े
उसको उतारे
धोए, बदले, पहन ले

पैगम्बरों का
दूत बनकर
घूमती है देह आदिम
बुतशिकन है बामियानी

मस्ज़िद गिराने
गुम्बद पे चढ़ी मिल जाएगी फिर
वही आदिम देह करती
बुतपरस्ती अवध में
 
पाक है दरगाहे अज़ल
मन्दिर सनातन मन्त्र पूजित
पूत पावन
दुग्ध घृत सेवित शिलाएँ शीर्ष की
बिखरी पड़ी हैं
पददलित हैं
धर्म के खण्डहर बचे हैं
प्रतिशोध में केवल उसी की हंसी सुनती
देह आदिम नृत्य करतीं
आद्य देवी केवला है
सभ्यता से पूर्व भी
वह ही यहाँ थी
उससे सनातन कुछ नहीं

पत्थरों में
ज्ञान के
अमृत जल सी
अभिषिक्त स्मृतियाँ तोड़ती दम
रेत होकर झर रही हैं ।

इतिहास को ढोकर थकी सी देव प्रतिमा
बेहाल भू लुंठित पड़ी है
शाश्वत सनातन देव का
कंकाल ही, बस, शेष है

पृष्ठ अन्तिम सत्य के
फट बिखर गिरते जा रहे
उड़ते फिरते से हवा में
विक्षिप्त भटके प्रेत लगते ।

अब तक खड़ी दीवार आधी
पहले मसीहा की निशानी आख़िरी सी
इज़रायली येरुसलम में
ईश्वर कभी आकर रहा था जिस जगह
पीठ उसके गेह की
आख्यान बेघरबार होने का बनी है
फिलिस्तीन लोगों की तरह ही अधमरी है ।

काले गुलाबी श्वेत पत्थर मरमरी
खुरदरे हो झर रहे
ज्यों अर्थ खोकर
वाक् से ध्वनियाँ छिटककर घरघराएँ ।

येरुसलम अब हर जगह मौजूद है
जैसे मगहर और काशी
जैसे मदीना, बामियान
जैसे अयोध्या बाबरी
दरगाह ज्यों शहबाज़ की ।

उजड़ काशी से गए देखो कबीर
मगहर से देखो मौन है !

फारस में पीछे छोड़कर
बेघर चिश्ती को खुदाई
अजमेर ही में मिल गई है

अजमेर भी तो सब कहीं
मुमकिन सदा है

दुनिया की छत्त तिब्बत से उतरा, क्या हुआ
धर्मशाला को दलाई
और ऊँचा कर रहा

येरुसलम में
तख़्तों मठों में
रब्ब इतने भर गए कि
आदमी का
बसना वहाँ दुश्वार है ।

लेकिन जहाँ होंगे कबीर
हर किसी में
छोटे बड़े नाटे कबीर
अक्खड़ निडर खुल बोलते हंसते कबीर
प्रतिवाद से सम्वाद तक सुलझे कबीर
गांव कोई भी भला हो
मगहर सरीखे धाम वे
कहलाएँगे, बस जाएँगे
और आदिम देह की
फिर से बीनेंगे चदरिया
आदमी की जात को ओढ़ाएँगे ।