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मझधार क्या / राधेश्याम प्रगल्भ
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सँघर्ष पथ पर चल दिया
फिर सोच और विचार क्या !
जो भी मिले स्वीकार है
वह जीत क्या, वह हार क्या !
संसार है सागर अगर
इस पार क्या, उस पार क्या !
पानी जहाँ गहरा वहीं
गोता लगाना है मुझे —
तुम तीर को तरसा करो
मेरे लिए मझधार क्या !