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मटकोड़बोॅ / पतझड़ / श्रीउमेश

सौखी के मटकोड़बोॅ छेलै, ऐलोॅ सब हमरे दरबार।
ढोल-ढाल बजबलेॅ ऐलोॅ, गितहारिन के गीत अपार॥
गितहारिन के झूमर छेलै, केतना पिरियोॅ हाय रे हाथ।
लाख उपाय करैछी हम्में, तैयो नै बिसरैलोॅ जाय॥

थपड़ी पारी-पारी जखनी, मौगीं गावै छेली गीत।
पछिया के टिटकारी सें झूमी हम्मू देखलैलां प्रीत॥
डारी के हाथोॅ सें, पत्ता के करताल बजैलेॅ छी।
ढोलिया के तालोॅ-तालोॅ पर, आपनों जी बहलैलेॅ छी॥
बोहा के मँड़वा दिन होय छै मटकौड़बा के विध वेवहार।
बोहा में मजदूरी केॅ कुछ दिलवावै के छै उपहार॥
मजदूरों लेॅकेॅ कोदार जाय छै कुछ नजदीकै के खेत।
ढोल-ढाल या गीत-नाद मंगल के एक संकेत॥
खेतोॅ के माटी सें केला-बाँसोॅ के गढ़ा भराय।
गीत सगुन के सोहागिनी गाबै छै आपनोॅ रंग जमाय॥