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मठ में लड़कियां / कमलेश्वर साहू

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सदियों से बुदबुदाये जा रहे हैं भगवान बुद्ध
निर्वाण निर्वाण निर्वाण
मठ में लड़कियां
घूमकर सारा मठ
खड़ी हैं इस वक्त
ठीक भगवान बुद्ध के सामने
जो बुदबुदाये जा रहे हैं सदियों से
निर्वाण निर्वाण निर्वाण
मुस्कुराती हैं लड़कियां
देखकर समाधिस्थ भगवान बुद्ध को
स्वयं बुद्ध को नहीं मालूम
क्या सोच रही हैं
ठीक उसके सामने खड़ी लड़कियां
कोई नहीं कर सकता परिभाषित
इस वक्त
इस मुस्कुराहट को
कहती है कोई एक
बहुत आहिस्ता
बुद्धम् शरण् गच्छाम् ि!
खिलखिलाती हैं लड़कियां-
आ तो गये !

तो
गए
इस हद तक हो गया पारदर्शी
कि उसके पार
साफ दिखाई देने लगा सब कुछ
मारती है कोहनी
कोई एक, दूसरी को-
क्या पर्सनालिटी है
क्या व्यक्तित्व
क्या आकर्षण
क्या सम्मोहन
क्या गठीला बदन
क्या अपीलिंग है यार ऽ ऽ ऽ !
एक सिसकारी के साथ
फड़फड़ाते हैं ढेर सारे होंठ
मठ में लड़कियांे को
भगवान बुद्ध के चेहरे की शांति दिखाई नहीं देती
भगवान बुद्ध के चेहरे पर व्याप्त
संतोष दिखाई नहीं देता
भगवान बुद्ध के चेहरे पर छाया हुआ
समस्त वासनाओं कामनाओं इच्छाओं पर
विजय दिखाई नहीं देता
कहती हैं
लड़कियां
मठ में
भगवान बुद्ध से
लड़कियां नहीं
उनकी देह
उनका यौवन
उनकी उम्र
उनकी आत्माएं कहती हैं-
हम ही सुख हैं
हम ही सत्य
हम ही शांति
हम ही सृष्टि
हम ही मुक्ति
हम ही मोक्ष
मुक्ति. . . . .मोक्ष. . . . .निर्वाण
वही निर्वाण
जो तुम बुदबुदाये जा रहे हो भगवन
भगवान बुद्ध
सदियों से .. . . . . .!