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मणिकर्णिका घाट पर दाहोत्सव / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय

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सौ वर्ष की बालविधवा का बांसभर रह गया था
जो कलेवर चटचट जलता है मनिकर्णिका घाट पर
डोम किनारे बैठ चाय पी रहा है

कौन है और, केवल शुष्कचक्षु विधवाएँ
बाल्यावस्था में आई थी काशी, बारह वर्ष की वय
सन १९०० में जन्मी, नाम रखा दादी ने चन्द्रघण्टा
सात वयस में ब्याही, नौ में विधवा

पुरातन काल की कथा है किन्तु क्या नहीं सुनोगे
सिद्धान्त कौमुदी को जो कण्ठ पर धारण करता था
चन्दन की भाँति स्फटिकमणि की भाँति
जो अपने श्लोकों से करता रुद्राभिषेक विश्वनाथ का
उसने एक दोपहर आकर छिन्नभिन्न कर दिया सबकुछ

केवल एक धोती में आए निर्बल बटुक में
क्या इतना सामर्थ्य था कि उसके जाने के पश्चात्
चन्द्रघण्टा रह जाती किसी अरथी के पीछे छूट गए
भग्न कलश की भाँति

बहुत काल तक आश्रम की अट्टालिका पर खड़ी
गँगा में प्राण देने का सोचती थी, उसके गँजे मस्तक में
अपार था क्लेश

जब बटुक चढ़ गया था उसके ऊपर भरी वाराणसी के
बीच, मध्याह्न काल, आश्रम के एकान्त में
अपमान नहीं लगा उसे ग्लानि नहीं हुई
केवल रक्त और सुख हुआ था उस काल

निर्बल दिखते बटुक ने जब हाथ उसका पूरा मरोर दिया
तब उसे बटुक की बलिष्ठता से भय और प्रेम दोनों हुए
उसका ह्रदय हुआ बटुक को खिला दें
किशमिश से भरी मावे की कचौरी
उसके पश्चात् जीवन बीत गया एकादशी का व्रत
और प्रदोष की पूजा करते

उसके पश्चात उस बालविधवा की आयु में
कोई कलँक नहीं है रक्त के एक कलँक को छोड़
बटुक को मावे की कचौरी खिलाने का स्वप्न
चटचट जलता है डालडा भरे उसके कपाल के सँग ।