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मणिकर्णिका / शिवांगी गोयल
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काश!
काश की मणिकर्णिका घाट पर एक शाम,
किसी चिता के पास बैठे हम दोनों
चिता से उठता धुआँ देखते,
एक साथ, हाथ पकड़कर
महसूस करते कि ख़ाक हो जाना क्या होता है
उस पल की मजबूती और कमजोरी, शब्द नहीं बयाँ कर सकते
वो आग की लपटें जो सब कुछ जला देने की कुव्वत रखती हों,
उनके सामने ख़ुद को जलने देना
अपने सुकून की बाहों में
क्या अलग ही जायका देता होगा ना!
यूँ भी, मैंने हमेशा महूसस किया है
कि तुम मणिकर्णिका से पावन हो;
तुम तक पहुँचने के लिए
मुझे या तो 'गंगा' होना पड़ेगा या 'मुर्दा'।