भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मताधिकार / कृष्ण कुमार यादव
Kavita Kosh से
लोकतंत्र की इस चकरघिन्नी में
पिसता जाता है आम आदमी
सुबह से शाम तक
भरी धूप में कतार लगाए
वह बाट जोहता है
अपने मताधिकार की
वह जानता भी नहीं
अपने इस अधिकार का मतलब
बस एक औपचारिकता है
जिसे वह पूरी कर आता है
और इस औपचारिकता के बदले
दे देता है अधिकार
चंद लोगों को
अपने ऊपर
राज करने का
जो अपने हिसाब से
इस मताधिकार का अर्थ निकालते हैं
और फिर छोड़ देते हैं
आम आदमी को
इंतज़ार करने के लिए
अगले मताधिकार का ।