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मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें / साग़र सिद्दीकी

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मता-ए-कौसर-ओ-ज़मज़म के पैमाने तिरी आँखें
फ़रिश्तों को बना देती हैं दीवाने तिरी आँखें

जहान-ए-रंग-ओ-बू उलझा हुआ है उन के डोरों में
लगी हैं काकुल-ए-तक़दीर सुलझाने तिरी आँखें

इशारों से दिलों को छेड़ कर इक़रार करती हैं
उठाती हैं बहार-ए-नौ के नज़राने तिरी आँखें

वो दीवाने ज़माम-ए-लाला-ओ-गुल थाम लेते हैं
जिन्हें मंसूब कर देती हैं वीराने तिरी आँखें

शगूफ़ों को शरारों का मचलता रूप देती हैं
हक़ीक़त को बना देती हैं अफ़्साने तिरी आँखें