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मति हाय ईश-रॅंग रॅंगी नहीं / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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मति हाय ईश-रॅंग रॅंगी नहीं।
यह नीच अघों के बीच फसा करता प्रभु की बंदगी नहीं
मति हाय ईश-रँग रॅंगी नहीं ।।

जिस मान-प्रतिष्ठा-संपत्ति को
मेरे ऋषियों ने फूँक दिया।
दुःख विषय-भोग में देख
पूर्वजों ने है जिस पर थूँक दिया
मैं वही चाटता-फिरता क्या
कुत्तों-सी यह जिन्दगी नहीं ?-।।1।।

किस-किस अध की छवि नहीं गढ़ा,
किस-किस कुसंग में नहीं पढ़ा,
एक तो करैला खुद तीता
दूसरे विषय की नीम चढ़ा।
काजल के घर का बासी मैं
किस अंग में कालिख लगी नहीं-।।2।।

देखो तो इस चाण्डाली मति की
नाथ पैंतरेबाजी को।
संपति सूकरी-मल लोभी
खलती भगवान-भक्ति जी को।
मति मलिन विषय-बोझिल
कुकर्म की किस खूँटी पर टॅंगी नहीं-।।3।।

अपराध कौन ऐसा जिसको
तुम कर सकते हो माफ नहीं।
यह मलिन हृदय क्यों कर देते
धो-पोंछ-बहा कर साफ नहीं।
‘पंकिल’ जीवन है वृथा अगर
प्रभु-प्रेम ज्योति जगमगी नहीं-
मति हाय ईश-रॅंग रॅंगी नहीं।।4।।