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मत्स्य-कन्या और पियक्कड़ों की पौराणिक कथा / पाब्लो नेरूदा

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यह सब लोग वहाँ अन्दर थे
जब वह वहाँ पहुँची, सिर से पैर तक नंगी,
यह सब लोग सुरा-पान कर रहे थे, और उस पर थूकने लगे थे।
नदी से निकलकर नई आई अभी-अभी, वह कुछ न समझ सकी ।
वह राह भूल गई एक मत्स्य-कन्या थी ।
व्यंग-ही-व्यंग से सराबोर हो रही थी उसकी दमकती देह ।
अश्लीलता-ही-अश्लीलता से लाँछित हो रहे थे उसके कँचन-कुच ।
आँसुओं से नावाकिफ, वह न रोई ।
कपड़ों से नावाकिफ़, न पहने थे उसने कपड़े,
उन्होंने उसके जिस्म को गोद-गोद दिया
सिगरेट के बचे टुकड़ों और कार्क के जले टुकड़ों से,
और मारे हँसी के लोट-पोट हो गए वह कलवरिया के फ़र्श पर
वह न बोली क्योंकि बोलने से वह नावाकिफ़ थी ।
स्वप्निल प्रेम के रंग से अनुरँजित थीं उसकी आँखें,
पुखराजों से मेल खाती थीं उसकी बाँहें ।
मूँगिया प्रकाश में उसके ओठ निश्शब्द चल रहे थे,
और अन्त में वह द्वार से निकल कर वहाँ से चली गई ।
नदी में धँसते ही, सिर से पैर तक पोर-पोर से स्वच्छ और शुद्ध हो गई, फिर एक बार वह दमक उठी वृष्टि में धुले सफ़ेद पत्थर के समान;
और बिना सिंहावलोकन किए, फिर एक बार वह तैरी-तिरी,
तैरी-तिरी न-कुछ-की ओर, तैरी-तिरी अपने अवसान की ओर ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : केदारनाथ अग्रवाल