भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मत आना इस धरती पर / रश्मि रेखा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपनों में आकाश छूती हैं
तुम्हारी छोटी-छोटी कोशिशें
पर जागती हुई आँखें देखती हैं
कुछ और ही दृश्य
मेरी बेटी
नहीं आना इस धरती पर
 कि यहाँ नहीं बनी अभी
कोई जगह तुम्हारे लिए

कि तुम्हारे जन्म पर
उदास हो जायेंगे घर के लोग
दुखी हो जायेगी बिरादरी
विरासत के लिए अर्थपूर्ण हो जायेगी
तुम्हारी उपस्थिति
बंदिशों की राह पर गुजरती
सलीबों की जुबान के रू ब रू
खुद को हर बार दूसरे की निग़ाह से देखना
करना होगा तुम्हें
अपनी आदत में शामिल
कभी जब पहचानने लगोगी
खुद को अपनी नज़र से
उस दिन यह दुनिया
तुम्हारी नहीं रह जायेगी अपनी
सवालों के चक्रव्यूह से घिरी
लहूलुहान हो जाओगी
महारथियों से जूझते

मेरी तार=तार होती आत्मा में
लगातार आकार लेती
काश तुम रह जातीं अजन्मी ही
कि यहाँ नहीं बनी अभी
कोई जगह तुम्हारे लिए