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मत कहो मित्र / रणजीत

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मत कहो मित्र!
हर बाग़ी इसी तरह ऊँचे आदर्श लिए आता है
और उन्हें पाने के लिए ज़िंदगी भर लड़ता है, लेकिन
आख़िर बंजर विद्रोहों के बाद समर्पण कर देता है
या कि टूट जाता है
और ज़माना जैसा था वैसा का वैसा रह जाता है।
हर एक बग़ावत का जो अब तक
धरती के सीने पर हुई जहाँ के नक्श बदलने
यही अंत था:
बिखरी हुई हड्डियाँ
लोहू की दुर्गंध हवा में
गीली मिट्टी
और मौत की मायूसी से भरा हुआ सन्नाटा
अब तक की हर एक बग़ावत का बस यही अंत था।
बात तुम्हारी सच है शायद
लेकिन दोस्त! फ़र्क समझो तुम
अब तक की हर एक बग़ावत से
अब आने वाली एक बग़ावत
बहुत अलग है
उन सबके हर एक नतीजे को वह देख चुकी है
उनकी फलता और विफलता के अनुभव की
पृष्ठभूमि पर खड़ी हुई है;
अब तक के सब विद्रोहों ने
दुनिया के ढाँचे की जड़ में
किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों को पाया था
इन्क़लाब का अर्थ उन्हीं लोगों का
ख़ून बहाने तक सीमित रक्खा था
इसीलिए वे विफल हुए थे
क्योंकि एक या कुछ लोगों के मर जाने से
यहाँ ज़िंदगी के ढर्रे में
कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ता है
फिर से नए लोग आते हैं
और जगह उनकी ले लेते
सब कुछ ज्यों का त्यों रह जाता
किन्तु बग़ावत मेरी अब यह जान चुकी है
अभी स्वयं इन्सान नहीं है
दुनिया के ढाँचे की जड़ में
अपने ही फैलाये अर्थनीति के नागपाश में फँसा हुआ है
जिसे आज वह व्यक्ति रूप में
पूर्ण सशक्त ईमानदार कोशिश के बावजूद भी
काट नहीं पाता है
इसलिए बग़ावत का मतलब मेरे आगे
किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के विरोध में
किसी एक या कुछ लोगों का शस्त्र उठाना मात्र नहीं है
बल्कि एक पूरे ढाँचे को चूर-चूर कर
नई व्यवस्था की नींवें रखना है
इसलिए मित्र!
मत कहो कि हर बाग़ी आख़िर
बंजर विद्रोहों के बाद समर्पण कर देता है
और ज़माना जैसा था वैसा का वैसा रह जाता है।